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हर आंख कहीं दूर के मंज़र पे लगी थी
बेदार<ref>जागृत , यहाँ परिचित </ref> कोई अपने बराबर से नहीं था
क्यों हाथ है ख़ाली कि हमारा कोई रिश्ता
वाक़िफ़<ref>परिचित </ref>वो मगर सअई-ए-मुक़र्रर<ref>पुन: प्रयत्न</ref>से नहीं था
मौसम को बदलती हुई इक मौजे-हवा<ref>हवा की लहर </ref> 4 थी
मायूस मैं ‘बानी’ अभी मंज़र से नहीं था
</poem>
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