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भूकंप / कविता वाचक्नवी

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मशीनों, आरियों, बुलडोजरों से
कँपती थरथराती रही मैं ।
 
तुम्हारे घरों की नींव
सरो-सामान में
भूल गए तुम ।
 
मैं थोड़ा हिली
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