भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
मशीनों, आरियों, बुलडोजरों से
कँपती थरथराती रही मैं ।
तुम्हारे घरों की नींव
सरो-सामान में
भूल गए तुम ।
मैं थोड़ा हिली