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कुछ नहीं / जयशंकर प्रसाद

83 bytes added, 18:58, 19 दिसम्बर 2009
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|रचनाकार=जयशंकर प्रसाद
|संग्रह=झरना / जयशंकर प्रसाद
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हँसी आती हैं मुझको तभी,
 
जब कि यह कहता कोई कहीं-
 
अरे सच, वह तो हैं कंगाल,
 
अमुक धन उसके पास नहीं।
 
सकल निधियों का वह आधार,
 
प्रमाता अखिल विश्व का सत्य,
 
लिये सब उसके बैठा पास,
 
उसे आवश्यकता ही नही।
 
और तुम लेकर फेंकी वस्तु,
 
गर्व करते हो मन में तुच्छ,
 
कभी जब ले लेगा वह उसे,
 
तुम्हारा तब सब होगा नहीं।
 
तुम्हीं तब हो जाओगे दीन,
 
और जिसका सब संचित किए,
 
साथ बैठा है सब का नाथ,
 
उसे फिर कमी कहाँ की रही?
 
शान्त रत्नाकर का नाविक,
 
गुप्त निधियों का रक्षक यक्ष,
 
कर रहा वह देखो मृदु हास,
 
और तुम कहते हो कुछ नहीं।
</poem>
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