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कुल खोये कुल ऊबरै, कुल राखे कुल जाय । <BR/>राम निकुल कुल भेटिया, सब कुल गया बिलाय ॥ 801 ॥ <BR/><BR/>
दुनिया के धोखे मुआ, चला कुटुम की कानि । <BR/>तब कुल की क्या लाज है, जब ले धरा मसानि ॥ 802 ॥ <BR/><BR/>
दुनिया सेती दोसती, मुआ, होत भजन में भंग । <BR/>एका एकी राम सों, कै साधुन के संग ॥ 803 ॥ <BR/><BR/>
यह तन काँचा कुंभ है, यहीं लिया रहिवास । <BR/>कबीरा नैन निहारिया, नाहिं जीवन की आस ॥ 804 ॥ <BR/><BR/>
यह तन काँचा कुंभ है, चोट चहूँ दिस खाय । <BR/>एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ॥ 805 ॥ <BR/><BR/>
जंगल ढेरी राख की, उपरि उपरि हरियाय । <BR/>ते भी होते मानवी, करते रंग रलियाय ॥ 806 ॥ <BR/><BR/>
मलमल खासा पहिनते, खाते नागर पान । <BR/>टेढ़ा होकर चलते, करते बहुत गुमान ॥ 807 ॥ <BR/><BR/>
महलन माही पौढ़ते, परिमल अंग लगाय । <BR/>ते सपने दीसे नहीं, देखत गये बिलाय ॥ 808 ॥ <BR/><BR/>
ऊजल पीहने कापड़ा, पान-सुपारी खाय । <BR/>कबीर गुरू की भक्ति बिन, बाँधा जमपुर जाय ॥ 809 ॥ <BR/><BR/>
कुल करनी के कारने, ढिग ही रहिगो राम । <BR/>कुल काकी लाजि है, जब जमकी धूमधाम ॥ 810 ॥ <BR/><BR/>
कुल करनी के कारने, हंसा गया बिगोय । <BR/>तब कुल काको लाजि है, चाकिर पाँव का होय ॥ 811 ॥ <BR/><BR/>
मैं मेरी तू जानि करै, मेरी मूल बिनास । <BR/>मेरी पग का पैखड़ा, मेरी गल की फाँस ॥ 812 ॥ <BR/><BR/>
ज्यों कोरी रेजा बुनै, नीरा आवै छौर । <BR/>ऐसा लेखा मीच का, दौरि सकै तो दौर ॥ 813 ॥ <BR/><BR/>
इत पर धर उत है धरा, बनिजन आये हाथ । <BR/>करम करीना बेचि के, उठि करि चालो काट ॥ 814 ॥ <BR/><BR/>
जिसको रहना उतघरा, सो क्यों जोड़े मित्र । <BR/>जैसे पर घर पाहुना, रहै उठाये चित्त ॥ 815 ॥ <BR/><BR/>
मेरा संगी कोई नहीं, सबै स्वारथी लोय । <BR/>मन परतीत न ऊपजै, जिय विस्वाय न होय ॥ 816 ॥ <BR/><BR/>
मैं भौंरो तोहि बरजिया, बन बन बास न लेय । <BR/>अटकेगा कहुँ बेलि में, तड़फि- तड़फि जिय देय ॥ 817 ॥ <BR/><BR/>
दीन गँवायो दूनि संग, दुनी न चली साथ । <BR/>पाँच कुल्हाड़ी मारिया, मूरख अपने हाथ ॥ 818 ॥ <BR/><BR/>
तू मति जानै बावरे, मेरा है यह कोय । <BR/>प्रान पिण्ड सो बँधि रहा, सो नहिं अपना होय ॥ 819 ॥ <BR/><BR/>
या मन गहि जो थिर रहै, गहरी धूनी गाड़ि । <BR/>चलती बिरयाँ उठि चला, हस्ती घोड़ा छाड़ि ॥ 820 ॥ <BR/><BR/>
तन सराय मन पाहरू, मनसा उतरी आय । <BR/>कोई काहू का है नहीं, देखा ठोंकि बजाय ॥ 821 ॥ <BR/><BR/>
डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार । <BR/>डरत रहै सो ऊबरे, गाफिल खाई मार ॥ 822 ॥ <BR/><BR/>
भय से भक्ति करै सबै, भय से पूजा होय । <BR/>भय पारस है जीव को, निरभय होय न कोय ॥ 823 ॥ <BR/><BR/>
भय बिन भाव न ऊपजै, भय बिन होय न प्रीति । <BR/>जब हिरदै से भय गया, मिटी सकल रस रीति ॥ 824 ॥ <BR/><BR/>
काल चक्र चक्की चलै, बहुत दिवस औ रात । <BR/>सुगन अगुन दोउ पाटला, तामें जीव पिसात ॥ 825 ॥ <BR/><BR/>
बारी-बारी आपने, चले पियारे मीत । <BR/>तेरी बारी जीयरा, नियरे आवै नीत ॥ 826 ॥ <BR/><BR/>
एक दिन ऐसा होयगा, कोय काहु का नाहिं । <BR/>घर की नारी को कहै, तन की नारी जाहिं ॥ 827 ॥ <BR/><BR/>
बैल गढ़न्ता नर, चूका सींग रू पूँछ । <BR/>एकहिं गुरुँ के ज्ञान बिनु, धिक दाढ़ी धिक मूँछ ॥ 828 ॥ <BR/><BR/>
यह बिरियाँ तो फिर नहीं, मनमें देख विचार । <BR/>आया लाभहिं कारनै, जनम जुवा मति हार ॥ 829 ॥ <BR/><BR/>
खलक मिला खाली हुआ, बहुत किया बकवाद । <BR/>बाँझ हिलावै पालना, तामें कौन सवाद ॥ 830 ॥ <BR/><BR/>
चले गये सो ना मिले, किसको पूछूँ जात । <BR/>मात-पिता-सुत बान्धवा, झूठा सब संघात ॥ 831 ॥ <BR/><BR/>
विषय वासना उरझिकर जनम गँवाय जाद । <BR/>अब पछितावा क्या करे, निज करनी कर याद ॥ 832 ॥ <BR/><BR/>हे मतिहीनी माछीरी! राखि न सकी शरीर । <BR/>सो सरवर सेवा नहीं , जाल काल नहिं कीर ॥ 833 ॥ <BR/><BR/>
मछरी यह छोड़ी नहीं, धीमर तेरो काल हे मतिहीनी माछीरी! राखि न सकी शरीर । <BR/>जिहि जिहि डाबर धर करोसो सरवर सेवा नहीं , तहँ तहँ मेले जाल काल नहिं कीर ॥ 834 833 ॥ <BR/><BR/>
परदा रहती पदुमिनीमछरी यह छोड़ी नहीं, करती कुल की कान धीमर तेरो काल । <BR/>घड़ी जु पहुँची काल कीजिहि जिहि डाबर धर करो, छोड़ भई मैदान तहँ तहँ मेले जाल ॥ 835 834 ॥ <BR/><BR/>
जागो लोगों मत सुवोपरदा रहती पदुमिनी, ना करूँ नींद से प्यार करती कुल की कान । <BR/>जैसा सपना रैन काघड़ी जु पहुँची काल की, ऐसा यह संसार छोड़ भई मैदान ॥ 836 835 ॥ <BR/><BR/>
क्या करिये क्या जोड़ियेजागो लोगों मत सुवो, तोड़े जीवन काज ना करूँ नींद से प्यार । <BR/>छाड़ि छाड़ि सब जात हैजैसा सपना रैन का, देह गेह धन राज ऐसा यह संसार ॥ 837 836 ॥ <BR/><BR/>
जिन घर नौबत बाजतीक्या करिये क्या जोड़िये, होत छतीसों राग तोड़े जीवन काज । <BR/>सो घर भी खाली पड़ेछाड़ि छाड़ि सब जात है, बैठने लागे काग देह गेह धन राज ॥ 838 837 ॥ <BR/><BR/>
कबीर काया पाहुनीजिन घर नौबत बाजती, हंस बटाऊ माहिं होत छतीसों राग । <BR/>ना जानूं कब जायगासो घर भी खाली पड़े, मोहि भरोसा नाहिं बैठने लागे काग ॥ 839 838 ॥ <BR/><BR/>
जो तू परा है फंद में निकसेगा कब अंध कबीर काया पाहुनी, हंस बटाऊ माहिं । <BR/>माया मद तोकूँ चढ़ाना जानूं कब जायगा, मत भूले मतिमंद मोहि भरोसा नाहिं ॥ 840 839 ॥ <BR/><BR/>
अहिरन की चोरी करै, करै सुई का दान जो तू परा है फंद में निकसेगा कब अंध । <BR/>ऊँचा चढ़ि कर देखतामाया मद तोकूँ चढ़ा, केतिक दुरि विमान मत भूले मतिमंद ॥ 841 840 ॥ <BR/><BR/>
नर नारायन रूप हैअहिरन की चोरी करै, तू मति समझे देह करै सुई का दान । <BR/>जो समझै तो समझ लेऊँचा चढ़ि कर देखता, खलक पलक में खोह केतिक दुरि विमान ॥ 842 841 ॥ <BR/><BR/>
मन मुवा माया मुईनर नारायन रूप है, संशय मुवा शरीर तू मति समझे देह । <BR/>अविनाशी जो न मरे, समझै तो क्यों मरे कबीर समझ ले, खलक पलक में खोह ॥ 843 842 ॥ <BR/><BR/>
मरूँ- मरूँ सब कोइ कहैमन मुवा माया मुई, मेरी मरै बलाय संशय मुवा शरीर । <BR/>मरना था तो मरि चुकाअविनाशी जो न मरे, अब को मरने जाय तो क्यों मरे कबीर ॥ 844 843 ॥ <BR/><BR/>
एक बून्द के कारने, रोता मरूँ- मरूँ सब संसार कोइ कहै, मेरी मरै बलाय । <BR/>अनेक बून्द खाली गयेमरना था तो मरि चुका, तिनका नहीं विचार अब को मरने जाय ॥ 845 844 ॥ <BR/><BR/>
समुझाये समुझे नहींएक बून्द के कारने, धरे बहुत अभिमान रोता सब संसार । <BR/>गुरु का शब्द उछेद हैअनेक बून्द खाली गये, कहत सकल हम जान तिनका नहीं विचार ॥ 846 845 ॥ <BR/><BR/>
राज पाट धन पायकेसमुझाये समुझे नहीं, क्यों करता धरे बहुत अभिमान । <BR/>पड़ोसी की जो दशागुरु का शब्द उछेद है, भई सो अपनी कहत सकल हम जान ॥ 847 846 ॥ <BR/><BR/>
मूरख शब्द न मानईराज पाट धन पायके, धर्म न सुनै विचार क्यों करता अभिमान । <BR/>सत्य शब्द नहिं खोजईपड़ोसी की जो दशा, जावै जम के द्वार भई सो अपनी जान ॥ 848 847 ॥ <BR/><BR/>
चेत सवेरे बाचरेमूरख शब्द न मानई, फिर पाछे पछिताय धर्म न सुनै विचार । <BR/>तोको जाना दूर हैसत्य शब्द नहिं खोजई, कहैं कबीर बुझाय जावै जम के द्वार ॥ 849 848 ॥ <BR/><BR/>
क्यों खोवे नरतन वृथाचेत सवेरे बाचरे, परि विषयन के साथ फिर पाछे पछिताय । <BR/>पाँच कुल्हाड़ी मारहीतोको जाना दूर है, मूरख अपने हाथ कहैं कबीर बुझाय ॥ 850 849 ॥ <BR/><BR/>
आँखि न देखे बावराक्यों खोवे नरतन वृथा, शब्द सुनै नहिं कान परि विषयन के साथ । <BR/>सिर के केस उज्ज्वल भयेपाँच कुल्हाड़ी मारही, अबहु निपट अजान मूरख अपने हाथ ॥ 851 850 ॥ <BR/><BR/>
ज्ञानी होय सो मानहीआँखि न देखे बावरा, बूझै शब्द हमार सुनै नहिं कान । <BR/>कहैं कबीर सो बाँचि हैसिर के केस उज्ज्वल भये, और सकल जमधार अबहु निपट अजान ॥ 852 851 ॥ <BR/><BR/>
ज्ञानी होय सो मानही, बूझै शब्द हमार ।कहैं कबीर सो बाँचि है, और सकल जमधार ॥ काल के विषय मे दोहे 852 ॥ <BR/><BR/>
जोबन मिकदारी तजी, चली निशान बजाय । <BR/>सिर पर सेत सिरायचा दिया बुढ़ापै आय ॥ 853 काल के विषय मे दोहे ॥ <BR/><BR/>
कबीर टुक-टुक चोंगता, पल-पल गयी बिहाय । <BR/>
जिव जंजाले पड़ि रहा, दियरा दममा आय ॥ 854 ॥ <BR/><BR/>
झूठे सुख को सुख कहैजोबन मिकदारी तजी, मानत है मन मोद चली निशान बजाय । <BR/>जगत् चबैना काल का, कछु मूठी कछु गोद सिर पर सेत सिरायचा दिया बुढ़ापै आय ॥ 855 853 ॥ <BR/><BR/>
काल जीव को ग्रासईकबीर टुक-टुक चोंगता, बहुत कह्यो समुझाय पल-पल गयी बिहाय । <BR/>कहैं कबीर में क्या करूँजिव जंजाले पड़ि रहा, कोई नहीं पतियाय दियरा दममा आय ॥ 856 854 ॥ <BR/><BR/>
निश्चय काल गरासहीझूठे सुख को सुख कहै, बहुत कहा समुझाय मानत है मन मोद । <BR/>कहैं कबीर मैं जगत् चबैना काल का कहूँ, देखत न पतियाय कछु मूठी कछु गोद ॥ 857 855 ॥ <BR/><BR/>
जो उगै तो आथवैकाल जीव को ग्रासई, फूलै सो कुम्हिलाय बहुत कह्यो समुझाय । <BR/>जो चुने सो ढ़हि पड़ैकहैं कबीर में क्या करूँ, जनमें सो मरि जाय कोई नहीं पतियाय ॥ 858 856 ॥ <BR/><BR/>
कुशल-कुशल जो पूछतानिश्चय काल गरासही, जग में रहा न कोय बहुत कहा समुझाय । <BR/>जरा मुई कहैं कबीर मैं का कहूँ, देखत न भय मुवा, कुशल कहाँ ते होय पतियाय ॥ 859 857 ॥ <BR/><BR/>
जरा श्वान जोबन ससाजो उगै तो आथवै, काल अहेरी नित्त फूलै सो कुम्हिलाय । <BR/>दो बैरी बिच झोंपड़ा कुशल कहाँ जो चुने सो ढ़हि पड़ै, जनमें सो मित्र मरि जाय ॥ 860 858 ॥ <BR/><BR/>
बिरिया बीती बल घटाकुशल-कुशल जो पूछता, केश पलटि भये और जग में रहा न कोय । <BR/>बिगरा काज सँभारि लेजरा मुई न भय मुवा, करि छूटने की ठौर कुशल कहाँ ते होय ॥ 861 859 ॥ <BR/><BR/>
यह जीव आया दूर तेजरा श्वान जोबन ससा, जाना है बहु दूर काल अहेरी नित्त । <BR/>दो बैरी बिच के बासे बसि गया, काल रहा सिर पूर झोंपड़ा कुशल कहाँ सो मित्र ॥ 862 860 ॥ <BR/><BR/>
कबीर गाफिल क्यों फिरै क्या सोता घनघोर बिरिया बीती बल घटा, केश पलटि भये और । <BR/>तेरे सिराने जम खड़ाबिगरा काज सँभारि ले, ज्यूँ अँधियारे चोर करि छूटने की ठौर ॥ 863 861 ॥ <BR/><BR/>
कबीर पगरा यह जीव आया दूर हैते, बीच पड़ी जाना है रात बहु दूर । <BR/>न जानों क्या होयेगाबिच के बासे बसि गया, ऊगन्ता परभात काल रहा सिर पूर ॥ 864 862 ॥ <BR/><BR/>
कबीर मन्दिर आपने, नित उठि करता आल गाफिल क्यों फिरै क्या सोता घनघोर । <BR/>मरहट देखी डरपतातेरे सिराने जम खड़ा, चौडढ़े दीया डाल ज्यूँ अँधियारे चोर ॥ 865 863 ॥ <BR/><BR/>
धरती करते एक पगकबीर पगरा दूर है, समुंद्र करते फाल बीच पड़ी है रात । <BR/>हाथों परबत लौलतेन जानों क्या होयेगा, ते भी खाये काल ऊगन्ता परभात ॥ 866 864 ॥ <BR/><BR/>
आस पास जोधा खड़ेकबीर मन्दिर आपने, सबै बजावै गाल नित उठि करता आल । <BR/>मंझ महल से ले चलामरहट देखी डरपता, ऐसा परबल काल चौडढ़े दीया डाल ॥ 867 865 ॥ <BR/><BR/>
चहुँ दिसि पाका कोट थाधरती करते एक पग, मन्दिर नगर मझार समुंद्र करते फाल । <BR/>खिरकी खिरकी पाहरू, गज बन्दा दरबार ॥ <BR/><BR/>चहुँ दिसि ठाढ़े सूरमा, हाथ लिये हाथियार । <BR/>सबही यह तन देखताहाथों परबत लौलते, ते भी खाये काल ले गया मात ॥ 868 866 ॥ <BR/><BR/>
हम जाने थे खायेंगेआस पास जोधा खड़े, बहुत जिमि बहु माल सबै बजावै गाल । <BR/>ज्यों का त्यों ही रहि गया, पकरि मंझ महल से ले गया चला, ऐसा परबल काल ॥ 869 867 ॥ <BR/><BR/>
काची काया मन अथिरचहुँ दिसि पाका कोट था, थिर थिर कर्म करन्त मन्दिर नगर मझार । <BR/>ज्यों-ज्यों नर निधड़क फिरैखिरकी खिरकी पाहरू, त्यों-त्यों काल हसन्त गज बन्दा दरबार ॥ 870 ॥ <BR/><BR/>
हाथी परबत फाड़तेचहुँ दिसि ठाढ़े सूरमा, समुन्दर छूट भराय हाथ लिये हाथियार । <BR/>ते मुनिवर धरती गलेसबही यह तन देखता, का कोई गरब कराय काल ले गया मात ॥ 871 868 ॥ <BR/><BR/>
संसै काल शरीर मेंहम जाने थे खायेंगे, विषम काल है दूर बहुत जिमि बहु माल । <BR/>जाको कोई जाने नहींज्यों का त्यों ही रहि गया, जारि करै सब धूर पकरि ले गया काल ॥ 872 869 ॥ <BR/><BR/>
बालपना भोले गयाकाची काया मन अथिर, और जुवा महमंत थिर थिर कर्म करन्त । <BR/>वृद्धपने आलस गयोज्यों-ज्यों नर निधड़क फिरै, चला जरन्ते अन्त त्यों-त्यों काल हसन्त ॥ 873 870 ॥ <BR/><BR/>
बेटा जाये क्या हुआहाथी परबत फाड़ते, कहा बजावै थाल समुन्दर छूट भराय । <BR/>आवन-जावन होय रहाते मुनिवर धरती गले, ज्यों कीड़ी का नाल कोई गरब कराय ॥ 874 871 ॥ <BR/><BR/>
संसै काल शरीर में, विषम काल है दूर ।
जाको कोई जाने नहीं, जारि करै सब धूर ॥ 872 ॥
ताजी छूटा शहर तेबालपना भोले गया, कसबे पड़ी पुकार और जुवा महमंत । <BR/>दरवाजा जड़ा ही रहावृद्धपने आलस गयो, निकस गया असवार चला जरन्ते अन्त ॥ 875 873 ॥ <BR/><BR/>
खुलि खेलो संसार मेंबेटा जाये क्या हुआ, बाँधि न सक्कै कोय कहा बजावै थाल । <BR/>घाट जगाती क्या करै, सिर पर पोट न आवन-जावन होय रहा, ज्यों कीड़ी का नाल ॥ 876 874 ॥ <BR/><BR/>
घाट जगाती धर्मराय, गुरुमुख ले पहिचान । <BR/>
छाप बिना गुरु नाम के, साकट रहा निदान ॥ 877 ॥ <BR/><BR/>
संसै काल शरीर मेंताजी छूटा शहर ते, जारि करै सब धूरि कसबे पड़ी पुकार । <BR/>काल से बांचे दास जन जिन पै द्दाल हुजूर दरवाजा जड़ा ही रहा, निकस गया असवार ॥ 878 875 ॥ <BR/><BR/>
ऐसे साँच न मानईखुलि खेलो संसार में, तिलकी देखो जाय बाँधि न सक्कै कोय । <BR/>जारि बारि कोयला करेघाट जगाती क्या करै, जमते देखा सोय सिर पर पोट न होय ॥ 879 876 ॥ <BR/><BR/>
जारि बारि मिस्सी करेघाट जगाती धर्मराय, मिस्सी करि है छार गुरुमुख ले पहिचान । <BR/>कहैं कबीर कोइला करैछाप बिना गुरु नाम के, फिर दै दै औतार साकट रहा निदान ॥ 880 877 ॥ <BR/><BR/>
संसै काल पाय जब ऊपजोशरीर में, काल पाय जारि करै सब जाय धूरि । <BR/>काल पाय सबि बिनिश है, काल काल कहँ खाय से बांचे दास जन जिन पै द्दाल हुजूर ॥ 881 878 ॥ <BR/><BR/>
पात झरन्ता देखि केऐसे साँच न मानई, हँसती कूपलियाँ तिलकी देखो जाय । <BR/>हम चाले तु मचालिहौंजारि बारि कोयला करे, धीरी बापलियाँ जमते देखा सोय ॥ 882 879 ॥ <BR/><BR/>
फागुन आवत देखि केजारि बारि मिस्सी करे, मन झूरे बनराय मिस्सी करि है छार । <BR/>जिन डाली हम केलिकहैं कबीर कोइला करै, सो ही ब्योरे जाय फिर दै दै औतार ॥ 883 880 ॥ <BR/><BR/>
मूस्या डरपैं काल सोंपाय जब ऊपजो, कठिन काल को जोर पाय सब जाय । <BR/>स्वर्ग भूमि पाताल में जहाँ जावँ तहँ गोर काल पाय सबि बिनिश है, काल काल कहँ खाय ॥ 884 881 ॥ <BR/><BR/>
पात झरन्ता देखि के, हँसती कूपलियाँ ।हम चाले तु मचालिहौं, धीरी बापलियाँ ॥ 882 ॥ फागुन आवत देखि के, मन झूरे बनराय । जिन डाली हम केलि, सो ही ब्योरे जाय ॥ 883 ॥ मूस्या डरपैं काल सों, कठिन काल को जोर ।स्वर्ग भूमि पाताल में जहाँ जावँ तहँ गोर ॥ 884 ॥ सब जग डरपै काल सों, ब्रह्मा, विष्णु महेश । <BR/>
सुर नर मुनि औ लोक सब, सात रसातल सेस ॥ 885॥
कबीरा पगरा दूरि है, आय पहुँची साँझ । <BR/>जन-जन को मन राखता, वेश्या रहि गयी बाँझ ॥ 886 ॥ <BR/><BR/>
जाय झरोखे सोवता, फूलन सेज बिछाय । <BR/>सो अब कहँ दीसै नहीं, छिन में गयो बोलाय ॥ 887 ॥ <BR/><BR/>
काल फिरे सिर ऊपरै, हाथों धरी कमान । <BR/>कहैं कबीर गहु ज्ञान को, छोड़ सकल अभिमान ॥ 888 ॥ <BR/><BR/>
काल काल सब कोई कहै, काल न चीन्है कोय । <BR/>जेती मन की कल्पना, काल कहवै सोय ॥ 889 ॥ <BR/><BR/>
॥ उपदेश ॥ <BR/><BR/>