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आमुख / प्रतिभा सक्सेना

2 bytes removed, 19:43, 14 जून 2013
जो इस संसार में मानव योनि में जन्मा उस पर प्रारंभ से ही परम पुण्यात्मा अथवा निकृष्ट अथवा पापी होने का ठप्पा लगा कर उसके हर कार्य को उसी चश्मे से देखना और व्यक्ति के एक-एक कार्य का औचित्य या अनौचित्य सिद्ध कर उसे महिमा मण्डित करने या निन्दा का पात्र बनाने से अच्छा यह है कि पूरे जीवन के कार्यों का लेखा-जोखा करने के पश्चात ही किसी निर्णय पर पहुँचा जाये। कभी-कभी परम यशस्वी जीवन जीने वाले मनुष्य भी ऐसी भूल कर बैठते हैं कि उनकी सारी उपलब्धियों पर पानी फिर जाता है और कभी जीवन भर गुमनाम या बदनाम व्यक्ति भी अपने किसी विलक्षण कार्य द्वारा यश के ऐसे शिखर पर पहुँच जाता है कि उसकी सारी कालिमा धुल जाती है। व्यक्ति का जीवन चेतना की अविरल धारा है उसका मूल्यांकन भी उसी समग्रता में होना चाहिये।
श्री इलयावुलूरि राव ने अपने 'संदेश' शीर्षक अन्तिम अध्याय में एक बात बहुत पते की कही है। यह विडंबना की बात है कि सारा संसार सीता और राम को आदर्श दंपति मान कर उनकी पूजा करता है, किन्तु उनका जैसा दाम्पत्य किसी को भी स्वीकार नहीं होगा। इसमें एक बात और जोड़ी जा सकती है कि राम जैसा पिता पाने को भी कोई पुत्र शायद ही तैयार हो और वधू एवं पौत्र-विहीना कौशल्या जैसी वृद्धावस्था की कामना भी कोई माता नहीं करेगी। पवित्रता का आधार केवल पार्थिव शरीर हो इस पर वाल्मीकि की सीता ने कहा था, 'मुझे यह देख कर बड़ा दुख हो रहा है कि आपको मेरे भीतर मात्र एक स्त्री(देह) दिखाई दे रही है, अपनी पति परायण पत्नी नहीं। हमारे पवित्र वैवाहिक संबंध की सारी बातें आप भूल गये और मेरी श्रद्धा और निष्ठा को भी आपने भुला दिया। राम इसका कोई उत्तर नहीं दे पाये थे। क्या कोई नारी कामना करेगी कि ऐसी विषम स्थिति में पड़ने पर उसका पति इसी प्रकार का व्यवहार करे?
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