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संस्कृत श्लोक / रहीम

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|रचनाकार=रहीम
}}
<poem>
(श्‍लोक)
* [[रत्नाकरो अस्ति आनीता नटवन्‍मया तब पुर; श्रीकृष्‍ण! या भूमिका ।व्‍योमाकाशखखांबराब्धिवसवस्‍त्‍वत्‍प्रीतयेऽद्यावधि ।।प्रीतस्‍त्‍वं यदि चेन्निरीक्ष्‍य भगवन् स्‍वप्रार्थित देहि मे ।नोचेद् ब्रूहि कदापि मानय पुरस्‍त्‍वेतादृशीं भूमिकाम् ।।1।। (अर्थ) हे श्रीकृष्‍ण! आपके प्रीत्‍यर्थ आज तक मैं नट की चाल पर आपके सामने लाया जाने से चैरासी लाख रूप धारण करता रहा । हे परमेश्‍वर! यदि आप इसे (दृश्‍य) देख कर प्रसन्‍न हुए हों तो जो मैं माँगता हूँ उसे दीजिए और नहीं प्रसन्‍न हों तो ऐसी आज्ञा दीजिए कि मैं फिर कभी ऐसे स्‍वाँग धारण कर इस पृथ्‍वी पर न लाया जाऊँ।  (श्‍लोक) कबहुँक खग मृग मीन कबहुँ मर्कटतनु धरि कै ।कबहुँक सुर-नर-असुर-नाग-मय आकृति करि कै ।।नटवत् लख चौरासि स्‍वॉंग धरि धरि मैं आयो ।हे त्रिभुवन नाथ! रीझ को कछू न पायो ।।जो हो प्रसन्‍न तो देहु अब मुकति दान माँगहु बिहँस ।जो पै उदास तो कहहु इम मत धरु रे नर स्‍वाँग अस ।।रिझवन हित श्रीकृष्‍ण, स्‍वाँग मैं बहु बिध लायो ।पुर तुम्‍हार है अवनि अहंवह रूप दिखायो ।गगन-बेत-ख-ख-व्‍योम-वेद बसु स्‍वाँग दिखाए ।अंत रूप यह मनुष रीझ के हेतु बनाए ।।जो रीझे तो दीजिए लजित रीझ जो चाय ।नाराज भए तो हुकुम करु रे स्‍वाँग फेरि मन लाय ।।  (श्‍लोक) रत्‍नाकरोऽस्ति सदनं / भारतेंदु हरिश्चंद्र]]गृहिणी च पद्मा,किं देयमस्ति भवते जगदीश्‍वराय ।राधागृहीतमनसे मनसे च तुभ्‍यं,दत्‍तं मया निजमनस्‍तदिदं गृहाण ।।2।। (अर्थ) रत्‍नाकर अर्थात् समुद्र आपका गृह है और लक्ष्‍मी जी आपकी गृहिणी हैं, तब हे जगदीश्‍वर! आप ही बतलाइए कि आप को क्‍या देने योग्‍य बच गया? राधिका जी ने आप का मन हरण कर लिया है, जिसे मैं आपको देता हूँ, उसे ग्रहण कीजिए। रत्‍नाकर गृह, श्री प्रिया देय कहा जगदीश ।राधा मन हरि लीन्‍ह तब कस न लेहु मम ईश ।।   (श्‍लोक) अहल्‍या पाषाणःप्रकृतियशुरासीत् कपिचमू -र्गुहो भूच्‍चांडा‍लस्त्रितयमपि नीतं निजपदम् ।।अहं चित्‍तेनाश्‍मा पशुरपि तवार्चादिकरणे ।क्रियाभिश्‍चांडालो रघुवर नमामुद्धरसि किम् ।।3।। (अर्थ) अहल्‍या जी पत्‍थर थीं, बंदरों का समूह पशु था और निषाद चांडाल था पर तीनों को आप ने अपने पद में शरण दी । मेरा चित्‍त पत्‍थर है, आपके पूजन में पशु समान हूँ और कर्म से भी चांडाल सा हूँ इसलिए मेरा क्‍यों नहीं उद्धार करते।   (श्‍लोक) यद्यात्रया व्‍यापकता हता ते भिदैकता वाक्परता च स्‍तुत्‍या ।ध्‍यामेन बुद्धे; परत; परेशं जात्‍याऽजता क्षन्‍तुमिहार्हसि त्‍वं ।।4।। (अर्थ) यात्रा करके मैंने आपकी व्यापकता, भेद से एकता, स्‍तुति करके वाक्परता, ध्‍यान करके आपका बुद्धि से दूर होना और जाति निश्चित करके आपका अजातिपन नाश किया है, सो हे परमेश्‍वर! आप इन अपराधों को क्षमा करो।   ( श्‍लोक) दृष्‍टा तत्र विचित्रिता तरुलता, मैं था गया बाग में ।काचितत्र कुरंगशावनयना, गुल तोड़ती थी खड़ी ।।उन्‍मद्भ्रूधनुषा कटाक्षविशि;, घायल किया था मुझे ।तत्‍सीदामि सदैव मोहजलधौ, हे दिल गुजारो शुकर ।।5।। (अर्थ) विचित्र वृक्षलता को देखने के लिए मैं बाग में गया था । वहाँ कोई मृग-शावक-नयनी खड़ी फूल तोड़ रही थी । भौं रूपी धनुष से कटाक्ष रूपी बाण चलाकर उसने मुझे घायल किया था। तब मैं सदा के लिए मोह रूपी समुद्र में पड़ गया। इससे हे हृदय, धन्‍यवाद दो।   (श्‍लोक) एकस्मिन्दिवसावसानसमये, मैं था गया बाग में ।काचितत्र कुरंगबालनयना, गुल तोड़ती थी खड़ी ।।तां दृष्‍ट्वा नवयौवनांशशिमुखीं, मैं मोह में जा पड़ा ।नो जीवामि त्‍वया विना श्रृणु प्रिये, तू यार कैसे मिले ।।6।। (अर्थ) एक दिन संध्‍या के समय मैं बाग में गया था। वहाँ कोई मृगछौने के नेत्रों के सामान आँख वाली खड़ी फूल तोड़ती थी । उस चन्‍द्रमुखी युवती को देखकर मैं मोह में जा पड़ा। हे प्रिये! सुनो, तुम्‍हारे बिना मैं नहीं जी सकता (इसलिए बताओ) कि तुम कैसे मिलोगी ?   (श्‍लोक) अच्‍युतच्‍चरणातरंगिणि शशिशेखर-मौलि-मालतीमाले ।मम तनु-वितरण-समये हरता देया न में हरिता ।।7।। (अर्थ) विष्‍णु भगवान के चरणों से प्रवाहित होने वाली और महादेव जी के मस्‍तक पर मालती माला के समान शोभित होनेवाली हे गंगे, मुझे तारने के समय महादेव बनाना न कि विष्‍णु । अर्थात् तब मैं तुम्‍हें शिर पर धारण कर सकूँगा। (इसी अर्थ का दोहा सं. 2 भी है।)   (बहुभाषा-श्‍लोक) भर्ता प्राची गतो मे, बहुरि न बगदे, शूँ करूँ रे हवे हूँ ।माझी कर्माचि गोष्‍ठी, अब पुन शुणसि, गाँठ धेलो न ईठे ।।म्‍हारी तीरा सुनोरा, खरच बहुत है, ईहरा टाबरा रो,दिट्ठी टैंडी दिलोंदो, इश्‍क अल् फिदा, ओडियो बच्‍चनाडू ।।8।। (अर्थ) मेरे पति पूर्व की ओर जो गए सो फिर न लौटे, अब मैं क्‍या करूँ। मेरे कर्म की बात है। अब और सुनो कि गाँठ में एक अधेला भी नहीं है। मुझसे सुनो कि खर्च अधिक है और परिवार भी बहुत है। तेरे देखने को मन में ऐसा हो रहा है कि प्रेम पर निछावर हो जाऊँ । (विरहिणी नायिका इस प्रकार कातर हो रही थी कि किसी ने कहा कि) वह आया है।
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