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|रचनाकार=मलिक मोहम्मद जायसी
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'''मुखपृष्ठ: [[पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी]]'''

जाही जूही तेहि फुलवारी । देखि रहस रहि सकी न बारी ॥<br>
दूतिन्ह बात न हिये समानी । पदमावति पहँ कहा सो आनी ॥<br>
नागमती है आपनि बारी । भँवर मिला रस करै धमारी ॥<br>
सखी साथ सब रहसहिं कूदहिं । औ सिंगार-हार सब गूँथहिं ॥<br>
तुम जो बकावरि तुम्ह सौं भर ना । बकुचन गहै चहै जो करना ॥<br>
नागमती नागेसरि नारी । कँवल न आछे आपनि बारी ॥<br>
जस सेवतीं गुलाल चमेली । तैसि एक जनु वहू अकेली ॥<br><br>

अलि जो सुदरसन कूजा , कित सदबरगै जोग ?<br>
मिला भँवर नागेसरिहि , दीन्ह ओहि सुख-भोग ॥1॥<br><br>

सुनि पदमावति रिस न सँभारी । सखिन्ह साथ आई फुलवारी ॥<br>
दुवौ सवति मिलि पाट बईठी । हिय विरोध, मुख बातैं मीठी ॥<br>
बारी दिस्टि सुरंग सो आई । पदमावति हँसि बात चलाई ॥<br>
बारी सुफल अहैं तुम रानी । है लाई, पै लाइ न जानी ॥<br>
नागेसर औ मालति जहाँ । सँगतराव नहिं चाही तहाँ ॥<br>
रहा जो मधुकर कँवल-पिरीता । लाइउ आनि करीलहि रीता ॥<br>
जह अमिलीं पाकै हिय माहाँ । तहँ न भाव नौरँग कै छाहाँ ॥<br><br>

फूल फूल जस फर जहाँ , देखहु हिये बिचारि ।<br>
आँब लाग जेहि बारी जाँबु काह तेहि बारि ? ॥2॥<br><br>

अनु, तुम कही नीक यह सोभा । पै फल सोइ भँवर जेहि लोभा ॥<br>
साम जाँबु कस्तूरी चोवा । आँब ऊँच, हिरदय तेहि रोवाँ ॥<br>
तेहि गुन अस भइ जाँबु पियारी । लाई आनि माँझ कै बारी ॥<br>
जल बाढे बहि इहाँ जो आई । है पाकी अमिली जेहि ठाईं ॥<br>
तुँ कस पराई बारी दूखी । तजा पानि, धाई मुँह-सूखी ॥<br>
उठै आगि दुइ डार अभेरा । कौन साथ तहँ बैरी केरा ॥<br>
जो देखी नागेसर बारी । लगे मरै सब सूआ सारी ॥<br><br>

जो सरवर-जल बाढै रहै सो अपने ठाँव ।<br>
तजि कै सर औ कुंडहि जाइ न पर-अंबराव ॥3॥<br><br>

तुइँ अँबराव लीन्हा का जूरी ?। काहे भई नीम विष-मूरी ॥<br>
भई बैरि कित कुटिल कटेली । तेंदू टेंटी चाहि कसेली ॥<br>
दारिउँ दाख न तोरि फुलवारी । देखि मरहिं का सूआ सारी ?॥<br>
औ न सदाफर तुरँज जँभीरा । लागे कटहर बडहर खीरा ॥<br>
कँवल के हिरदय भीतर केसर । तेहि न सरि पूजै नागेसर ॥<br>
जहँ कटहर ऊमर को पूछै ?। बर पीपर का बोलहिं छूँछै ॥<br>
जो फल देखा सोई फीका । गरब न करहिं जानि मन नीका ॥<br><br>

रहु आपनि तू बारी, मोसौं जूझु, न बाजु ।<br>
मालति उपम न पूजै वन कर खूझा खाजु ॥4॥<br><br>

जो कटहर बडहर झडबेरी । तोहि असि नाहीं, कोकाबेरी ! ॥<br>
साम जाँबु मोर तुरँज जँभीरा । करुई नीम तौ छाँह गँभीरा ॥<br>
नरियर दाख ओहि कहँ राखौं । गलगल जाउँ सवति नहिं भाखौं ॥<br>
तोरे कहे होइ मोरर काहा ?। फरे बिरिछ कोइ ढेल न बाहा ॥<br>
नवैं सदाफर सदा जो फरई । दारिउँ देखि फाटि हिय मरई ॥<br>
जयफर लौंग सोपारि छोहारा । मिरिच होइ जो सहै न झारा ॥<br>
हौं सो पान रंग पूज न कोई । बिरह जो जरै चून जरि होई ॥<br><br>

लाजहिं बूडि मरसि नहिं,, उभि उठावसि बाँह ।<br>
हौं रानी, पिय राजा; तो कहँ जोगी नाह ॥5॥<br><br>

हौं पदमिनि मानसर केवा । भँवर मराल करहिं मोरि सेवा ॥<br>
पूजा-जोग दई हम्म गढी । और महेस के माथे चढी ॥<br>
जानै जगत कँवल कै करी । तोहि अस नहिं नागिनि बिष-भरी ॥<br>
तुइँ सब लिए जगत के नागा । कोइल भेस न छाँडेसि कागा ॥<br>
तू भुजइल, हौं हँसिनि भोरी । मोहि तोहि मोति पोति कै जोरी ॥<br>
कंचन-करी रतन नग बाना । जहाँ पदारथ सोह न आना ॥<br>
तू तौ राहु, हौं ससि उजियारी । दिनहि न पूजै निसि अँधियारी ॥<br><br>

ठाढि होसि जेहि ठाईं मसि लागै तेहि ठाव ।<br>
तेहि डर राँध न बैठौं मकु साँवरि होइ जाव ॥6॥<br><br>

कँवल सो कौन सोपारी रोठा । जेहि के हिये सहस दस कोठा ॥<br>
रहै न झाँपै आपन गटा । सो कित उघेलि चहै परगटा ॥<br>
कँवल-पत्र तर दारिउँ, चोली । देखे सूर देसि है खोली ॥<br>
ऊपर राता, भीतर पियरा । जारौं ओहि हरदि अस हियरा ॥<br>
इहाँ भँवर मुख बातन्ह लावसि । उहाँ सुरुज कह हँसि बहरावसि ॥<br>
सब निसि तपि तपि मरसि पियासी । भोर भए पावसि पिय बासी ॥<br>
सेजवाँ रोइ रोइ निसि भरसी । तू मोसौं का सरवरि करसी ?॥<br><br>

सुरुज-किरन बहरावै, सरवर लहरि न पूज ।<br>
भँवर हिया तोर पावै, धूप देह तोरि भूँज ॥7॥<br><br>

मैं हौं कँवल सुरुज कै जोरी । जौ पिय आपन तौ का चोरी ?॥<br>
हौं ओहि आपन दरपन लेखौं । करौं सिंगार, भोर मुख देखौं ॥<br>
मोर बिगास ओहिक परगासू । तू जरि मरसि निहारि अकासू ॥<br>
हौं ओहि सौं, वह मोसौं राता । तिमिर बिलाइ होत परभाता ॥<br>
कँवल के हिरदय महँ जो गटा । हरि हर हार कीन्ह, का घटा ?॥<br>
जाकर दिवस तेहि पहँ आवा । कारि रैनि कित देखै पावा ?॥<br>
तू ऊमर जेहि भीतर माखी । चाहहिं उडै मरन के पाँखी ॥<br><br>

धूप न देखहि, बिषभरी ! अमृत सो सर पाव ।<br>
जेहि नागनि डस सो मरै, लहरि सुरुज कै आव ॥8॥<br><br>

फूल न कँवल भानु बिनु ऊए । पानी मैल होइ जरि छूए ॥<br>
फिरहिं भँवर तारे नयनाहाँ । नीर बिसाइँध होइ तोहि पाहाँ ॥<br>
मच्छ कच्छ दादुर कर बासा । बग अस पंखि बसहिं तोहि पासा ॥<br>
जे जे पंखि पास तोहि गए । पानी महँ सो बिसाइँध भए ॥<br>
जौ उजियार चाँद होइ ऊआ । बदन कलंक डोम लेइ छूआ ॥<br>
मोहि तोहि निसि दिन कर बीचू । राहु के साथ चाँद कै मीचू ॥<br>
सहस बार जौ धोवै कोई । तौहु बिसाइँध जाइ न धोई ॥<br><br>

काह कहौं ओहि पिय कहँ, मोहि सिर धरेसि अँगारि ।<br>
तेहि के खेल भरोसे तुइ जीती, मैं हारि ॥9॥<br><br>

तोर अकेल का जीतिउँ हारू । मैं जीतिउँ जग कर सिंगारू ॥<br>
बदन जितिउँ सो ससि उजियारी । बेनी जितिउँ भुअंगिनि कारी ॥<br>
नैनन्ह जितिउँ मिरिग के नैना । कंठ जितिउँ कोकिल के बैना ॥<br>
भौंह जितिउँ अरजुन धनुधारी । गीउ जितिउँ तमचूर पुछारी ॥<br>
नासिक जितिउँ पुहुप तिल, सूआ । सूक जितिउँ बेसरि होइ ऊआ ॥<br>
दामिनि जितिउँ दसन दमकाहीं । अधर-रंग जीतिउँ बिंबाहीं ॥<br>
केहरि जितिउँ, लंक मैं लीन्हीं । जितिउँ मराल, चाल वे दीन्ही ॥<br><br>

पुहुप-बास मलयगिरि निरमल अंग बसाई ।<br>
तू नागिनि आसा-लुबुध डससि काहु कहँ जाइ ॥10॥<br><br>

का तोहिं गरब सिंगार पराए । अबहीं लैहिं लूट सब ठाएँ ॥<br>
हौं साँवरि सलोन मोर नैना । सेत चीर, मुख चातक-बैना ॥<br>
नासिक खरग, फूल धुव तारा । भौंहैं धनुक गगन गा हारा ॥<br>
हीरा दसन सेत औ सामा । चपै बीजु जौ बिहँसै बामा ॥<br>
बिद्रूम अधर रंग रस-राते । जूड अमिय अस, रबि नहिं ताते ॥<br>
चाल गयंद गरब अति भारी । बसा लंक, नागेसर - करी ॥<br>
साँवरि जहाँ लोनि सुठि नीकी । का सरवरि तू करसि जो फीकी ॥<br><br>

पुहुप-बास औ पवन अधारी कँवल मोर तरहेल ।<br>
चहौं केस धरि नावौं, तोर मरन मोर खेल ॥11॥<br><br>

पदमावति सुनि उतर न सही । नागमती नागिनि जिमि गही ॥<br>
वह ओहि कहँ,वह ओहि कहँ गहा । काह कहौं तस जाइ न कहा ॥<br>
दुवौ नवल भरि जोबन गाजैं । अछरी जनहुँ अखारे बाजैं ॥<br>
भा बाहुँन बाहुँन सौं जोरा । हिय सौं हिय, कोइ बाग न मोरा ॥<br>
कुच सों कुच भइ सौंहैं अनी । नवहिं न नाए, टूटहिं तनी ॥<br>
कुंभस्थल जिमि गज मैमंता । दूवौ आइ भिरे चौदंता ॥<br>
देवलोक देखत हुत ठाढे । लगे बान हिय, जाहिं न काढे ॥<br><br>

जनहुँ दीन्ह ठगलाडू देखि आइ तस मीचु ।<br>
रहा न कोइ धरहरिया करै दुहुन्ह महँ बीचु ॥12॥<br><br>

पवन स्रवन राजा के लागा । कहेसि लडहिं पदमिनि औ नागा ॥<br>
दूनौ सवति साम औ गोरी । मरहिं तौ कहँ पावसि असि जोरी ॥<br>
चलि राजा आवा तेहि बारी । जरत बुझाई दूनौ नारी ॥<br>
एक बार जेइ पिय मन बूझा । सो दुसरे सौं काहे क जूझा ?॥<br>
अस गियान मन आव न कोई । कबहुँ राति, कबहुँ दिन होई ॥<br>
धूप छाँह दोउ पिय के रंगा । दूनौ मिली रहहिं एक संगा ॥<br>
जूझ छाँडि अब बूझहु दोऊ । सेवा करहु सेव-फल होऊ ॥<br><br>

गंग जमुन तुम नारि दोउ, लिखा मुहम्मद जोग ।<br>
सेव करहु मिलि दूनौ तौ मानहु सुख भौग ॥13॥<br><br>

अस कहि दूनौ नारि मनाई । बिहँसि दोउ तब कंठ लगाई ॥<br>
लेइ दोउ संग मँदिर महँ आए । सोन-पलँग जहँ रहे बिछाए ॥<br>
सीझी पाँच अमृत-जेवनारा । औ भोजन छप्पन परकारा ॥<br>
हुलसीं सरस खजहजा खाई । भोग करत बिहँसी रहसाई ॥<br>
सोन-मँदिर नगमति कहँ दीन्हा । रूप-मँदिर पदमावति लीन्हा ॥<br>
मंदिर रतन रतन के खंभा । बैठा राज जोहारै सभा ॥<br>
सभा सो सबै सुभर मन कहा । सोई अस जो गुरु भल कहा ॥<br><br>

बहु सुगंध, बहु भौग सुख, कुरलहिं केलि कराहिं ।<br>
दुहुँ सौं केलि नित मानै, रहस अनँद दिन जाहिं ॥14॥<br><br>



(1) धमारी करै = होली की सी धमार या क्रीडा करता है । तुम जो बकावरि ...भर ना =
तुम जो बकावली फूल हो क्या तुमसे राजा का जी नहीं भरता ? बकुचन गहे...करना = जो वह
करना फूल को पकडना या आलिंगन करना चाहता है । नागेसरि = नागकेसर । कँवल न....
आपनि बारी = कँवल (पद्मावती) अपनी बारी या घर में नहीं है अर्थात् घर नागमती का जान
पडता है । जस सेवतीं..चमेली = जैसे सेवती और गुलाला आदि (स्त्रियाँ) नागमती की
सेवा करती हैं वैसे ही एक पद्मिनी भी है । अलि जो ....सदबरगै जोग = जो भँवरा सुदरसन
फूल पर गूँजेगा वह सदबर्ग (गेंदा) के योग्य कैसे रह जायगा ?

(2) संगतराव = सँगतरा नीबू ; संगत राव, राजा का साथ ।
अमिलीं इमली; न मिली हुई; विरहिणी । नौरँग = नारंगी; नए आमोद-प्रमोद ।

(3) अनु
= और । तजा पाकि = सरोवर का जल छोडा । अभेरा = भिडंत, रगडा । सारी = सारिका,
मैना । सरवर-जल = सरोवर के जल में । बाढै =बढता है ?

(4) तुइँ अँबराव...जूरी =तूने अपने अमराव में इकट्ठा ही क्या किया है ? ऊमर = गूलर । न बाजु = न लड ।
खूझा खाजु = खर पतवार, नीरस फल ।

(5) झडबेरी = झडबेर, जंगली बेर । कोकाबेरी =कमलिनी ।
गल गल जाउ = चाहे गल जाऊँ; गलगल नीबू । सवति नहिं भाखौं = सपत्नी का नाम न लूँ ।
कोइ ढेल न बाहा = कोई ढेला न फेंके (उससे क्या होता है) ऊभी = उठाकर

(6) केवा = कमल
कागा = कौवापन भुजइल = भुजंगा पक्षी । पोत = काँच या पत्थर की गुरिया । मसि =स्याही
राँध = पास, समीप ।

(7) रोठा = रोडा, टुकडा । जेहि के हिये..कोठा = कँवल गट्टे
के भीतर बहुत से बीज कोष होते हैं । गटा = कँवलगट्टा । उघेलि = खोलकर । दारिउँ =
अनार के समान कँवलगट्टा जो तेरा स्तन है । निसि भरसी = रात बिताती है तू । करसी =
तू करती है ।
सरवर...पूज = ताल की लहर उसके पास तक नहीं पहुँचती; वह जल के ऊपर उठा रहता है।
भूँज = भूनती है ।

(8) हरि हर हार कीन्ह = कमल की माला विष्णु और शिव पहनते हैं ।
मरन के पाँखी = कीडों को जो पंख अंत समय में निकलते हैं ।

(9) जरि = जड, मून ।
डोम छूआ = प्रवाद है कि चंद्रमा डोमों के ऋणी हैं वे जब घेरते हैं तब ग्रहण होता है

(10) आसालुबुध = सुगंध की आशा से साँप चंदन में लिपटे रहते हैं ।

(11) सिंगार पराए = दूसरों से लिया सिंगार जैसा कि ऊपर कहा है । जूड अमिय ...ताते = उन अधरों में
बालसूर्य की ललाई है पर वे अमृत के समान शीतल हैं; गरम नहीं । नागेसर-करी = नागेसर
फूल की कली । तरहेल नीचे पडा हुआ, अधीन ।

(12) बाजैं = लडती हैं । बाग न मोरा = बाग नहीं मोडती, अर्थात् लडाई से हटती नहीं । अनी = नोक । तनी = चोली के बंद ।
चौदंता = स्याम देश का एक प्रकार का हाथी;अथवा थोडी अवस्था का उद्दंड पशु (बैल,
घोडे आदि के लिये इस शब्द का प्रयोग होता है ) ठगलाडू = ठगों के लड्डू जिन्हें
खिलाकर वे मुसाफिरों को बेहोश करते हैं । धरहरिया = झगडा छुडानेवाला ।
बीचु करै = दोनों को अलग करे, झगडा मिटाए ।
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