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:स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में।
पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से,
:मानों झीम झूम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥
पंचवटी की छाया में है, सुन्दर पर्ण-कुटीर बना,
:जिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर, धीर -वीर निर्भीकमना,
जाग रहा यह कौन धनुर्धर, जब कि भुवन भर सोता है?
:भोगी कुसुमायुध योगी-सा, बना दृष्टिगत होता है॥
क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा;
:है स्वच्छन्द-सुमंद गंधवहगंध वह, निरानंद है कौन दिशा?
बंद नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप,
:पर कितने एकान्त भाव से, कितने शांत और चुपचाप!
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