भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
दलो इनको दल सको तो,
ये घिनोनेघिनौने, घने जंगलनींद मे में डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।
अटपटी-उलझी लताऐंलताएँ,डालियों को खींच खाऐंखाएँ,
पैर को पकड़ें अचानक,
प्राण को कस लें कपाऐं।कपाएँ।सांप साँप सी काली लताऐंलताएँबला की पाली लताऐंलताएँ
लताओं के बने जंगल
मच्छरों के दंश वाले,
दाग काले-लाल मुँह पर,
वात- झन्झा वहन करते,
चलो इतना सहन करते,
पाल कर निश्चिन्त बैठे,
विजनवन के बीच बैठे,
झोंपडी पर फ़ूंस फूस डाले
गोंड तगड़े और काले।
जब कि होली पास आती,
सरसराती घास गाती,
और महुए से लपकती,
मत्त करती बास आती,
गीत इनके, बोल इनके
मत्त मुर्गे और तीतर,
इन वनों के खूब भीतर।
क्षितिज तक फ़ैला हुआ-सा,
मृत्यु तक मैला हुआ-सा,
नदी, निर्झर और नाले,
इन वनों ने गोद पाले।
लाख पंछी सौ हिरन-दल,
चाँद के कितने किरन दल,
झूमते बन-फ़ूलफूल, फ़लियाँफलियाँ,
खिल रहीं अज्ञात कलियाँ,
हरित दूर्वा, रक्त किसलय,