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ज़ीस्त आज़ार हुई जाती है|<br>
सांस साँस तलवार हुई जाती है|<br><br>
जिस्म बेकार हुआ जाता है,<br>
कान से दिल में उतरती नहीं बात,<br>
आैर और गुफ़्तार हुई जाती है|<br><br>
ढल के निकली है हक़ीक़त जब से,<br>
कुछ पुर-असरार हुई जाती है|<br><br>
अब तो हर ज़ख़्म की मुंहबन्द मुँहबन्द कली,<br>
लब-ए-इज़हार हुई जाती है|<br><br>
फूल ही फूल हैं हर सिम्त 'नदीम',<br>
राह दुश्वार हुई जाती है|<br><br>
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