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}}
{{KKCatKavita}}<poem>जीवन में कितना सूनापन<br>पथ निर्जन है, एकाकी है,<br>उर में मिटने का आयोजन<br>सामने प्रलय की झाँकी है<br><br>
वाणी में है विषाद के कण<br>प्राणों में कुछ कौतूहल है<br>स्मृति में कुछ बेसुध-सी कम्पन<br>पग अस्थिर है, मन चंचल है<br><br>
यौवन में मधुर उमंगें हैं<br>कुछ बचपन है, नादानी है<br>मेरे रसहीन कपालो पर<br>कुछ-कुछ पीडा का पानी है<br><br>
आंखों में अमर-प्रतीक्षा ही<br>बस एक मात्र मेरा धन है<br>मेरी श्वासों, निःश्वासों में<br>आशा का चिर आश्वासन है<br><br>
मेरी सूनी डाली पर खग<br>कर चुके बंद करना कलरव<br>जाने क्यों मुझसे रूठ गया<br>मेरा वह दो दिन का वैभव<br><br>
कुछ-कुछ धुँधला सा है अतीत<br>भावी है व्यापक अन्धकार<br>उस पार कहां? वह तो केवल<br>मन बहलाने का है विचार<br><br>
आगे, पीछे, दायें, बायें<br>जल रही भूख की ज्वाला यहाँ<br>तुम एक ओर, दूसरी ओर<br>चलते फिरते कंकाल यहाँ<br><br>
इस ओर रूप की ज्वाला में<br>जलते अनगिनत पतंगे हैं<br>उस ओर पेट की ज्वाला से<br>कितने नंगे भिखमंगे हैं<br><br>
इस ओर सजा मधु-मदिरालय<br>हैं रास-रंग के साज कहीं<br>उस ओर असंख्य अभागे हैं<br>दाने तक को मुहताज कहीं<br><br>
इस ओर अतृप्ति कनखियों से<br>सालस है मुझे निहार रही<br>उस ओर साधना पथ पर<br>मानवता मुझे पुकार रही<br><br>
तुमको पाने की आकांक्षा<br>उनसे मिल मिटने में सुख है<br>किसको खोजूँ, किसको पाऊँ<br>असमंजस है, दुस्सह दुख है<br><br>
बन-बनकर मिटना ही होगा<br>जब कण-कण में परिवर्तन है<br>संभव हो यहां मिलन कैसे<br>जीवन तो आत्म-विसर्जन है<br><br>
सत्वर समाधि की शय्या पर<br>अपना चिर-मिलन मिला लूँगा<br>जिनका कोई भी आज नहीं<br>मिटकर उनको अपना लूँगा ।<br><br>लूँगा।
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