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| रचनाकार= इरशाद खान सिकंदर
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सर पे बादल की तरह घिर मेरे
धूप हालात हुए फिर मेरे

मेरे महबूब गले से लग जा
आके क़दमों पे न यूँ गिर मेरे

रात गुज़रे तो सफ़र पर निकलें
मुझमें सोये हैं मुसाफ़िर मेरे

दिल में झाँके ये किसे फ़ुर्सत है
ज़ख्म ग़ायब हैं बज़ाहिर मेरे

एक दिन फूट के बस रोया था
धुल गये सारे अनासिर मेरे

उसकी आँखों में नहीं देखता मैं
ख़्वाब हो जाते हैं ज़ाहिर मेरे

मुझको ईमां की तरफ़ लाए हैं
कुफ़्र बकते हुए काफ़िर मेरे
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