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हँसते हुए कतरा के गुज़र जाए है मुझ से
क्या क्या वो मुझे देख के इतराए है मुझ से

देखा मुझे मुँह फेर लिया फिर मुझे देखा
अकसर वो यही नाज़ तो फरमाए है मुझ से

आग़ाज़-ए-जवानी वो मोहब्बत के फ़साने
तूफ़ान हैं यादों का के टकराए है मुझ से

वो फ़लसफ़ा-ए-इश्‍क़ से वाकिफ़ ही नहीं है
अच्छा है के नासेह की अलग राए है मुझ से

महताब में होती तो है जाम ताबिश-ए-अंजुम
क्या तेरी तजल्ली भी ज़िया पाए है मुझ से

होते हैं सभी ख़ुश मेरी दीवाना-वशी से
इस अंजुमन-ए-नाज़ में रंग आए है मुझ से

‘महशर’ ये यक़ीं है के यक़ीं लाए बनेगी
वो वादा-फ़रामोश क़सम खाए है मुझ से
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