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07:09, 18 अगस्त 2013 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार='महशर' इनायती
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<poem>
हक़ीक़त हक़ीक़त कहाँ मेरे बाद
के उभरेंगी परछाइयाँ मेरे बाद
तमाशाइयो चुन के रख लो इन्हें
तबर्रूक हैं ये धज्जियाँ मेरे बाद
मिसालों में ज़िक्र-ए-वफ़ा आएगा
चलेंगी मेरी दास्तां मेरे बाद
मुझे सौंप दो कुल ज़माने का ग़म
के मिट जाए ग़म का निशाँ मेरे बाद
मुअम्मा रही है मेरी ज़िंदगी
बढ़ेंगी ग़लत-फ़हमियाँ मेरे बाद
हिलाओ ना लब-हा-ए-शोला-फ़िशाँ
चले ना किसी पर ज़बाँ मेरे बाद
हरम भी वही बुत-कदा भी वही
मगर आप का आस्ताँ मेरे बाद
ग़नीमत है ‘महशर’ मेरी ज़िंदगी
के रोएगी उर्दू ज़बाँ मेरे बाद
</poem>
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