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07:12, 18 अगस्त 2013 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार='महशर' इनायती
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क्या क्या हरीस फ़ैज़-मआबों के आस-पास
भौंरों का रक़्स जैसे गुलाबों के आस-पास
कितने हसीं जज़ीरे हैं जो कुछ ही दूर पर
आबाद होते जाते हैं ख़्वाबों के आस-पास
ऐ दौर-ए-सुब्ह-ओ-शाम ज़रा तेज़-गाम चल
रूकते नहीं हैं ख़ाना-ख़राबों के आस-पास
देख ऐ जुनूँ के सर-ब-गिरेबाँ हैं आज कल
कितने सवाल मेरे जवाबों के आस-पास
‘महशर’ निचोड़ी जाएँ अगर अपने हाथ से
दिल झूमता है ऐसी शराबों के आस-पास
</poem>
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