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|रचनाकार='महशर' इनायती
}}
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न ग़ैर ही मुझे समझो न दोस्त ही समझो
मेरे लिए ये बहुत है के आदमी समझो
मैं रह रहा हूँ ज़माने में साए की सूरत
जहाँ भी जाओ मुझे अपने साथ ही समझो
हर एक बात ज़बाँ से कही नहीं जाती
जो चुपके बैठे हैं कुछ उन की बात भी समझो
गुज़र तो सकती हैं रातें जला जला के चराग़
मगर ये क्या के अँधेरे को रौशनी समझो
वो शेर कहने लगे हो तुम अब तो ऐ ‘महशर’
न कोई और ही समझे न आप ही समझो
</poem>
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न ग़ैर ही मुझे समझो न दोस्त ही समझो
मेरे लिए ये बहुत है के आदमी समझो
मैं रह रहा हूँ ज़माने में साए की सूरत
जहाँ भी जाओ मुझे अपने साथ ही समझो
हर एक बात ज़बाँ से कही नहीं जाती
जो चुपके बैठे हैं कुछ उन की बात भी समझो
गुज़र तो सकती हैं रातें जला जला के चराग़
मगर ये क्या के अँधेरे को रौशनी समझो
वो शेर कहने लगे हो तुम अब तो ऐ ‘महशर’
न कोई और ही समझे न आप ही समझो
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