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09:37, 19 अगस्त 2013 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार='वहशत' रज़ा अली कलकत्वी
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आँख में जलवा तिरा दिल में तिरी याद रहे
ये मयस्सर हो तो फिर क्यूँ कोई ना-शाद रहे
इस ज़माने में ख़ामोशी से निकलता नहीं काम
नाला पुर-शोर हो और ज़ोरों पे फ़रियाद रहे
दर्द का कुछ तो हो एहसास दिल-ए-इंसान में
सख़्त ना-शाद है दाइम जो यहाँ शाद रहे
ऐ तिरे दाम-ए-मोहब्बत के दिल ओ जाँ सदके
शुक्र है क़ैद-ए-अलाइक से हम आज़ाद रहे
नाला ऐसा हो कि हो उस पे गुमान-ए-नग़मा
रहे इस तरह अगर शिकवा-ए-बेदाद रहे
हर तरफ़ दाम बिछाए हैं हवस ने किया क्या
क्या ये मुमकिन है यहाँ कोई दिल आज़ाद रहे
जब ये आलम हो कि मँडलाती हो हर सम्त को बर्क़
क्यूँ कोई नौहा-गर-ए-ख़िरमन-ए-बर्बाद रहे
अब तसव्वुर में कहाँ शक्ल-ए-तमन्ना ‘वहशत’
जिस को मुद्दत से न देखा हो वो क्या याद रहे
</poem>
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