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|रचनाकार='वहशत' रज़ा अली कलकत्वी
}}
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दिल के कहने पे चलूँ अक़्ल का कहना न करूँ
मैं इसी सोच में हूँ क्या करूँ और क्या न करूँ
ज़िंदगी अपनी किसी तरह बसर करना है
क्या करूँ आह अगर तेरी तमन्ना न करूँ
मजलिस-ए-वाज़ में क्या मेरी ज़रूरत नासेह
घर में बैठा हुआ शुग़्ल-ए-मय ओ मीना न करूँ
मस्त है हाल में दिल बे-ख़बर-ए-मुस्तक़बिल
सोचता हूँ उसे होश्यार करूँ या न करूँ
किस तरह हुस्न-ए-ज़बाँ की हो तरक़्की ‘वहशत’
मैं अगर ख़िदमत-ए-उर्दू-ए-मोअल्ला न करूँ
</poem>
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दिल के कहने पे चलूँ अक़्ल का कहना न करूँ
मैं इसी सोच में हूँ क्या करूँ और क्या न करूँ
ज़िंदगी अपनी किसी तरह बसर करना है
क्या करूँ आह अगर तेरी तमन्ना न करूँ
मजलिस-ए-वाज़ में क्या मेरी ज़रूरत नासेह
घर में बैठा हुआ शुग़्ल-ए-मय ओ मीना न करूँ
मस्त है हाल में दिल बे-ख़बर-ए-मुस्तक़बिल
सोचता हूँ उसे होश्यार करूँ या न करूँ
किस तरह हुस्न-ए-ज़बाँ की हो तरक़्की ‘वहशत’
मैं अगर ख़िदमत-ए-उर्दू-ए-मोअल्ला न करूँ
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