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|रचनाकार='वहशत' रज़ा अली कलकत्वी
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किसी सूरत से उस महफ़िल में जा कर
मुक़द्दर हम भी देखें आज़मा कर

तग़ाफ़ुल-केश मैं ने ही बनाया
उसे हाल-ए-दिल-ए-शैदा सुना कर

उठा लेने से तो दिल के रहा मैं
तू अब ज़ालिम वफ़ा कर या जफ़ा कर

तिरे गुलशन में पहुँचे काश इक दिन
नसीम-ए-आश्नाई राह पा कर

ख़ुशी उन को मुबारक हो इलाही
वो ख़ुश हैं ख़ाक में मुझ को मिला कर

दहन है रश्क से ग़ुंचे का पुर-ख़ूँ
किधर देखा था तुम ने मुस्कुरा कर

वो शरमतो हैं सुन कर वस्ल का नाम
रहा हूँ मैं जो चुप तो बात पा कर

हुआ वो बे-वफ़ाई में मुसल्लम
निशान-ए-तुर्बत-ए-आशिक़ मिटा कर

गुनाह अपने मुझे याद आए ‘वहशत’
खज़िल सा रह गया मैं हाथ उठा कर
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