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|रचनाकार='वहशत' रज़ा अली कलकत्वी
}}
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लगाओ न जब दिल तो फिर क्यूँ लगावट
नहीं मुझ को भाती तुम्हारी बनावट
पड़ा था उसे काम मेरी जबीं से
वो हँगामा भूली नहीं तेरी चौखट
ये तमकीं है और लब हों जान-ए-तबस्सुम
न खुल जाए ऐ शोख़ तेरी बनावट
मैं धोके ही खाया किया ज़िंदगी में
क़यामत थी उस आश्ना की लगावट
ठिकाना तेरा फिर कहीं भी न होगा
न छूटे कभी ‘वहशत’ उस बुत की चौखट
</poem>
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|रचनाकार='वहशत' रज़ा अली कलकत्वी
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लगाओ न जब दिल तो फिर क्यूँ लगावट
नहीं मुझ को भाती तुम्हारी बनावट
पड़ा था उसे काम मेरी जबीं से
वो हँगामा भूली नहीं तेरी चौखट
ये तमकीं है और लब हों जान-ए-तबस्सुम
न खुल जाए ऐ शोख़ तेरी बनावट
मैं धोके ही खाया किया ज़िंदगी में
क़यामत थी उस आश्ना की लगावट
ठिकाना तेरा फिर कहीं भी न होगा
न छूटे कभी ‘वहशत’ उस बुत की चौखट
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