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|रचनाकार='वहशत' रज़ा अली कलकत्वी
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ज़मीं रोई हमारे हाल पर और आसमाँ रोया
हमारी बे-कसी को देख कर सारा जहाँ रोया

मैं जब निकला चमन से शबनम आब-ए-गुलसिताँ रोया
उदासी छा गई ऐसी ख़ुद आख़िर बाग़बाँ रोया

न आया रहम कुछ भी आह-ए-दिल में उस सितम-गर के
हमारी जब्हा-साई के असर से आस्ताँ रोया

हर इक अज़्व-ए-बदन मातम-कुनाँ है दिल के जाने से
हुआ युसूफ़ जो गुम तो कारवाँ का कारवाँ रोया

ख़लल-अफ़गन तिरी बज़्म-ए-तरब में कौन हो ज़ालिम
हुआ क्या गर तिरे कूचे में कोई तुफ़्ता-ए-जाँ रोया

मिरे आँसू तिरी बेदाद का पर्दा न खोलेंगे
अबस ये बद-गुमानी है मैं कब रोया कहाँ रोया

अदू ख़ुश हों तो हों ऐ बे-मुरव्वत तेरी महफ़िल में
मिरा तो हाल ये है जब कभी आया यहाँ रोया

जफ़ा-ए-दुश्मनाँ और बे-वफ़ाई-हा-ए-याराँ से
बहुत ग़म-दीदा हो कर ‘वहशत’-ए-आज़ुर्दा-जाँ रोया
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