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एक्सीडेंट / मजीद 'अमज़द'

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मुझ से रोज़ यही कहता है पक्की सड़क पर वो काला सा दाग़ जो कुछ दिन पहले
सुर्ख़ लहू का था इक छींटा चिकना गीला चमकीला चमकीला
मिट्टी उस पे गिरी और मैली सी इक पपड़ी उस पर से उतरी और फिर सिंधूरी सा इक ख़ाका उभरा
जो अब पक्की सड़क पर काला सा धब्बा है पिसी हुई बजरी में जज़्ब और जामिद अन-मिट
मुझ से रोज़ यही कहता है पक्की सड़क पर मसला हुआ वो दाग़ लहू का
मैंने तो पहली बार उस दिन
अपनी रंग-बिरंगी क़ाशों वाली गेंदों के पीछे
यूँही ज़रा इक जस्त भरी थी
अभी तो मेरा रोग़न भी कच्चा था
उस मिट्टी पर मुझ को उड़ेल दिया यूँ किस ने
वूँ वूँ मैं नहीं मिटता मैं तो हूँ अब भी हूँ

मैं से सुन कर डर जाता हूँ
काली बजरी के रोग़न में जीने वाले इस मासूम लहू की कौन सुनेगा
ममता बिक भी चुकी है चंद टकों में
क़ानून आँखें मीचे हुए है
क़ातिल पहिए बे-पहरा हैं
</poem>
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