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नजहाद ए नौ / मजीद 'अमज़द'

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बरहना सर हैं बरहना तन हैं बरहना पा हैं
शरीर रूहें
ज़मीर-ए-हस्ती की आरज़ूएँ
चटकती कलियाँ
कि जिन से बूढ़ी उदास गलियाँ
महक रही हैं
ग़रीब बच्चे कि जो शुआ-ए-सहर-गही हैं
हमारी क़ब्रों पे गिरते अश्कों का सिलसिला हैं

वो मज़िलें जिन की झलकियों को हमारी राहें
तरस रही हैं
उन्हीं के क़दमों में बस रही हैं
हसीन ख़्वाबों
की धूंदली दुनियाएँ जो सराबों
का रूप धारे
हमारे एहसास पर शरारे
उड़ेलती हैं
उन्हीं की आँखों में खेलती हैं
उन्हीं के गुम-सुम
उदास चेहरों पर झिलमिलाते हुए तबस्सुम
में ढल गए हैं हमारे आँसू हमारी आहें

तवील तारीकियों में खो जाएँगे जब इक दिन
हमारे साए
इस अपनी दुनिया की लाश उठाए
तो सैल-ए-रवाँ
की कोई मौज-ए-हयात सामाँ
फ़रोग़-ए-फ़र्दा
का रूख़ पे डाले महीन पर्दा
उछल के शायद
समेट ले ज़िंदगी की सरहद
के उस किनारे
पे घूमते आलमों के धारे
से सब जा है ब-जा है लेकिन
ये तोतली नौ-ख़िराम रूहें कि जिन की हर साँस अंग्बीं
अगर इन्हीं कोंपलों की क़िस्मत में नाज़-ए-बालीदगी नहीं है
तो बहती नदियों
में आने वाली हज़ार सदियों
को ये तलातुम
सुकूत-ए-पैहम का ये तरन्नुम
ये झोंके झोंके
में खुलते घूँघट नई रूतों के
थकी ख़लाओं
में लाख अनदेखी कहकशाओं
की कविश ए रम
हज़ार ना आफ्रीदा आलम
तमाम बातिल
न उन का मक्सद न उन का हासिल
अगर इन्हीं कोंपलों की क़िस्मत में नाज़-ए-बालीदगी नहीं है
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