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<poem>
अब शोर थमा तो मैं ने जाना
आधी के क़रीब रो चुकी है

शब गर्द को अश्क धो चुकी है
चादर काली ख़ला की मुझ पर

भारी है मिस्ल-ए-मौत शहपर
है साँस को रूकने का बहाना

तस्बीह से टूटता है दाना
मैं नुक़्ता-ए-हक़ीर आसमानी

बे-फ़स्ल है बे-ज़माँ है तू भी
कहती है ये फ़लसफ़ा-तराज़ी

लेकिन से सनसनाती वुसअत
इतनी बे-हर्फ़ ओ बे-मुरव्वत

आमादा-ए-हर्ब-ए-ला-ज़मानी
दुश्मन की अजनबी निशानी
</poem>
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