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घर पर मेरे अधिकार हो,
पर, यही, मेरा और तेरा ,
क्योँ बन जाता, सरहदोँ मेँ सरहदों में बँटा,
शत्रुता का, कटु व्यवहार?
रोटी की भूख, इन्सानाँ इन्सानों को,
चलाती है,
रात दिन के फेर मेँ में पर,
चक्रव्यूह कैसे , फँसाते हैँ ,
सबको, मृत्यु के पाश मेँ में ?
लोभ, लालच, स्वार्थ वृत्त्ति,
अनहद,धन व मद का
नहीँ रहता कोई सँतुलन!
मँ मैं ही सच , मेरा धर्म ही सच!सारे धर्म, वे सारे, गलत हैँ हैं !
क्योँ क्यों सोचता, ऐसा है आदमी ??
भूल कर, अपने से बडा सच!!
सत्य का सामना, करो नर,
उठो बन कर नई आग,
जागो, बुलाता तुम्हेँतुम्हें, विहान,है जो,आया अब समर का !
</poem>
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