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{{KKRachna
|रचनाकार=‘खावर’ जीलानी
}}
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<poem>
क़दम क़दम का इलाक़ा है ना-रवा तक है
फ़ुसूँ-ए-जौर-ओ-जफ़ा पेशा जा-ब-जा तक है
गर एक बार को होता आलम ग़नीमत था
सितम तो ये है की दर-पेश बारहा तक है
दिए की लौ से नहीं वास्ता किसी का कोई
अगर किसी का कोई है तो फिर हवा तक है
अमल है ख़ुद पे अमल-दार ता-दम मौक़ूफ़
और इस का रद्द-ए-अमल अपने इल्तवा तक है
सदा-ए-शोर-ओ-शाग़ब है इधर समाअत तक
शुनीद गिर्द ओ जवानिब इधर सदा तक है
मगर ये कौन बताए सफ़र-नवर्दों को
के हद दश्त-ए-जुनूँ उन के इक्तिफ़ा तक है
ऐ बे-क़रारी दिल मुझ को ये ख़बर ही न थी
के जो क़रार की सरहद है इतक़ा तक है
ख़ुदा से बाद में रक्खे हुए है दुनिया को
वो फ़ासला जो हथेली से इक दुआ तक है
कहीं परे की है हाजत-रवाई से मेरी
मेरा सवाल ज़रूरत से माँ-वरा तक है
है तू ही आँख मेरी ऐ जमाल-ए-पेश-ए-नज़र
सो ये तमाशा मेरा इक तेरी रज़ा तक है
नहीं है कोई भी हतमी यहाँ हदें मालूम
हर एक इंतिहा इक और इंतिहा तक है
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|रचनाकार=‘खावर’ जीलानी
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क़दम क़दम का इलाक़ा है ना-रवा तक है
फ़ुसूँ-ए-जौर-ओ-जफ़ा पेशा जा-ब-जा तक है
गर एक बार को होता आलम ग़नीमत था
सितम तो ये है की दर-पेश बारहा तक है
दिए की लौ से नहीं वास्ता किसी का कोई
अगर किसी का कोई है तो फिर हवा तक है
अमल है ख़ुद पे अमल-दार ता-दम मौक़ूफ़
और इस का रद्द-ए-अमल अपने इल्तवा तक है
सदा-ए-शोर-ओ-शाग़ब है इधर समाअत तक
शुनीद गिर्द ओ जवानिब इधर सदा तक है
मगर ये कौन बताए सफ़र-नवर्दों को
के हद दश्त-ए-जुनूँ उन के इक्तिफ़ा तक है
ऐ बे-क़रारी दिल मुझ को ये ख़बर ही न थी
के जो क़रार की सरहद है इतक़ा तक है
ख़ुदा से बाद में रक्खे हुए है दुनिया को
वो फ़ासला जो हथेली से इक दुआ तक है
कहीं परे की है हाजत-रवाई से मेरी
मेरा सवाल ज़रूरत से माँ-वरा तक है
है तू ही आँख मेरी ऐ जमाल-ए-पेश-ए-नज़र
सो ये तमाशा मेरा इक तेरी रज़ा तक है
नहीं है कोई भी हतमी यहाँ हदें मालूम
हर एक इंतिहा इक और इंतिहा तक है
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