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|रचनाकार=‘खावर’ जीलानी
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अता के रोज़-ए-असर से भी टूट सकती थी
वो शाख़ बार-ए-समर से भी टूट सकती थी

मैं दिल में सच की नुमू से था ख़ौफ़ खाया हुआ
के सीप ताब-ए-गोहर से भी टूट सकती थी

उसी पे था मेरे हर एक तीर का तकिया
कमाँ जो खेंच के डर से टूट सकती थी

पड़ी थी आह को ही ख़ुद-नुमाई की वरना
ख़ामोशी दीद-ए-तर से भी टूट सकती थी

जुड़े हुए थे बहुत वसवसे ख़्यालों से
सो नींद ख़्वाब के शर से भी टूट सकती थी

दिलों की शीशा-गरी कार-गह-ए-हस्ती में
हुनर के ज़ेर ओ ज़बर से भी टूट सकती थी

ये आब वो था की आतिश भड़क न पाने की
रिवायत एक शरर से भी टूट सकती थी

मैं एक ऐसा किनारा था जिस की क़ुर्बत को
वो लहर अपने भँवर से भी टूट सकती थी

हर एक लश्करी इतरा रहा था जिस पे वो तेग़
ख़याल-हा-ए-ज़रर से भी टूट सकती थी

ज़मीं न होती अगर इस कमाल की हामिल
क़यामत आसमाँ पर से भी टूट सकती थी

तू ख़ुश-नसीब था वरना तेरी अना की फ़सील
कमाल-ए-सर्फ़-ए-नज़र से भी टूट सकती थी
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