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जुगलबन्दी / रति सक्सेना

77 bytes removed, 13:04, 29 अगस्त 2013
|रचनाकार=रति सक्सेना
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{{KKCatKavita}}<poem>जब तंत्रियों पर फिसलती छुअन<br>नाभि पर नाचती मिज़राब से<br>अभिमंत्रित कर देती सितार को<br>भीतर का समूचा रीतापन<br>भर उठता है।<br>रेगिस्तानी सांपों की सरसराहटों<br>जंगली बासों की सीटियों<br>बिजली की चीत्कारों<br>सियारों की हुआ हुआ<br>तने रगड़ते हाथीयों के गरजने<br>भैंसों के सींग भिड़ने से<br>फूट पड़ता है सुरों का जंगली झरना<br><br>
झरने का वेग<br>चेहरे पर सहेजते<br>बांध लेते हैं तबले<br>समूचे जंगल को<br>अपनी बांहों में<br>सुर पार करने लगती हैं पगडंडियां<br>विलम्बित पर चलती<br>द्रुत पर दौड़ती<br>तोड़े की टापों टटकारती<br>झाले में झनकने लगतीं हैं<br>हवा कुछ नीचे आ ठहर जाती है<br>आकाश भी झांकने लगता है<br><br>
किसे नहीं चाहिए खुशी<br>
अनख रीतेपन के भराव के लिये।
</poem>