|रचनाकार=भगवतीचरण वर्मा
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तुम सुधि बन-बनकर बार-बार
क्यों कर जाती हो प्यार मुझे?
फिर विस्मृति बन तन्मयता का
दे जाती हो उपहार मुझे।
तुम सुधि बन-बनकर बार-बार<br>मैं करके पीड़ा को विलीनक्यों कर जाती हो प्यार मुझे?<br>पीड़ा में स्वयं विलीन हुआफिर विस्मृति अब असह बन तन्मयता गया देवि,तुम्हारी अनुकम्पा का<br>दे जाती हो उपहार मुझे ।<br><br>भार मुझे।
मैं करके पीड़ा को विलीन<br>माना वह केवल सपना था,पीड़ा में स्वयं विलीन हुआ<br>पर कितना सुन्दर सपना थाअब असह बन गया देविजब मैं अपना था,<br>और सुमुखितुम्हारी अनुकम्पा का भार मुझे ।<br><br>तुम अपनी थीं, जग अपना था।
माना वह केवल सपना था,<br>पर कितना सुन्दर सपना था<br>जब मैं अपना था, और सुमुखि<br>तुम अपनी थीं, जग अपना था ।<br><br> जिसको समझा था प्यार, वही<br>अधिकार बना पागलपन का<br>अब मिटा रहा प्रतिपल,<br>तिल-तिल, मेरा निर्मित संसार मुझे ।<br>मुझे।<br/poem>