भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
जन-मनक पुनि ‘कृष्ण’ अप्पन
ताकि रहला शंख।
और अब यही कविता हिन्दी में पढ़ें
विश्व शान्ति की द्रौपदी के कपड़े
खींच रहीं हैं अंन्धे की सन्तानें
(दृश्य की वीभत्सता का क्या कुछ है भान)
कौरवी-लिप्सा निरन्तर आज
बढ़ता जा रहा है दिन और रात।
खो चुका है बुजुर्ग जैसे आचार्य की प्रज्ञा
मूक, नीरव, क्षुब्ध और असहाय!
किन्तु !
किन्तु बीच में उठ रहा है भूकम्प
जन-मन का कृष्ण फिर से
ढूँढ़ रहे हैं अपना शंख ।
अनुवाद: विनीत उत्पल
</poem>