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{{KKRachna
|रचनाकार=साहिर लुधियानवी
|संग्रह=
}}

मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया

हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया


:::::बरबादियों का सोग मनाना फ़ुजूल था

;;;;;बरबादियों का जश्न मनाता चला गया


जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया

जो खो गया मैं उसको भुलाता चला गया


:::::ग़म और ख़शी में फ़र्क़ न महसूस हो जहाँ

:::::मैं दिल को उस मुक़ाम पर लाता चला गया
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