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{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सविता सिंह
|संग्रह=नींद थी और रात थी
}}
मुझे वह स्त्री पसन्द नहीं
जिसकी जीभ लटपटाती है पुरुषों से बात करने में
जिसका कलेजा काँपता है उनकी मार के डर से
जो झुक कर उठाती है उनके जूते
पहनाती है उन्हें समर्थ समझ कर
जो सोती है उनके साथ किसी फ़ायदे के लिए
मुझे वह स्त्री पसन्द है जो कहती है अपनी बात साफ़-साफ़
बेझिझक जितना कहना है बस उतना
निर्भीक जो करती है अपने काम
नहीं डरती सोचती हुई आत्मनिर्भरता पर अपनी
हटाती नहीं जो आख़िरी पर्दे
जिन्हें आत्मा बचाए रखना चाहती है देह के लिए
मुझे वह स्त्री पसन्द है
समझती हुई सारे घात-प्रतिघात जो
ख़तरे सारे जीवन के
ख़ुद से प्रेम करती है
और संसार के हर प्राणी से सहानुभूति रखती है
{{KKRachna
|रचनाकार=सविता सिंह
|संग्रह=नींद थी और रात थी
}}
मुझे वह स्त्री पसन्द नहीं
जिसकी जीभ लटपटाती है पुरुषों से बात करने में
जिसका कलेजा काँपता है उनकी मार के डर से
जो झुक कर उठाती है उनके जूते
पहनाती है उन्हें समर्थ समझ कर
जो सोती है उनके साथ किसी फ़ायदे के लिए
मुझे वह स्त्री पसन्द है जो कहती है अपनी बात साफ़-साफ़
बेझिझक जितना कहना है बस उतना
निर्भीक जो करती है अपने काम
नहीं डरती सोचती हुई आत्मनिर्भरता पर अपनी
हटाती नहीं जो आख़िरी पर्दे
जिन्हें आत्मा बचाए रखना चाहती है देह के लिए
मुझे वह स्त्री पसन्द है
समझती हुई सारे घात-प्रतिघात जो
ख़तरे सारे जीवन के
ख़ुद से प्रेम करती है
और संसार के हर प्राणी से सहानुभूति रखती है
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