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|रचनाकार=चंद्रसेन विराट
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[[Category:ग़ज़ल]]{{KKCatGhazal}}<poem>
तुम कभी थे सूर्य लेकिन अब दियों तक आ गये।
 
थे कभी मुख्पृष्ठ पर अब हाशियों तक आ गये ॥
 
यवनिका बदली कि सारा दृष्य बदला मंच का ।
 
थे कभी दुल्हा स्वयं बारातियों तक आ गये ।।
वक्त का पहिया किसे कुचले कहां कब क्या पता।
 
थे कभी रथवान अब बैसाखियों तक आ गये ।।
 
देख ली सत्ता किसी वारांगना से कम नहीं ।
 
जो कि अध्यादेश थे खुद अर्जियों तक आ गये ।।
 
देश के संदर्भ मे तुम बोल लेते खूब हो ।
 
बात ध्वज की थी चलाई कुर्सियों तक आ गये ।।
 
प्रेम के आख्यान मे तुम आत्मा से थे चले ।
 
घूम फिर कर देह की गोलाईयों तक आ गये ॥
 
कुछ बिके आलोचकों की मानकर ही गीत को ।
 
तुम ॠचाएं मानते थे गालियों तक आ गये ॥
 
सभ्यता के पंथ पर यह आदमी की यात्रा ।
 
देवताओं से शुरु की वहशियों तक आ गये ॥
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