भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नीला संसार / सविता सिंह

1,198 bytes added, 19:31, 4 नवम्बर 2007
New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सविता सिंह |संग्रह=नींद थी और रात थी }} अभी थोड़ा अंधेरा...
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सविता सिंह
|संग्रह=नींद थी और रात थी
}}

अभी थोड़ा अंधेरा है

भाषा में भी सन्नाटा है अभी

अभी बिखरे पड़े हैं रेशम के सारे धागे

सपनों के नीले संसार में ऎंठे

अभी कुछ भी व्यवस्थित नहीं

कविता भी नहीं


मैं चल रही हूँ लेकिन इसी अंधेरे में

जागी चुपचाप समझती

कि जो नीले रेशमी डोरे तैर रहे हैं

और जो भाषा सन्न है मेरी ही चुप से

वह सब कुछ मेरा ही है

एक परखनली मेरे अंधकार की

एक गहरी नीली खाई मेरे होने की


अभी थोड़ा अंधेरा है

और मैं चल रही हूँ लिए नींद बग़ल में
Anonymous user