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|रचनाकार=मीर तक़ी 'मीर'
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[[Category:ग़ज़ल]]{{KKCatGhazal}}<poem>
फ़क़ीराना आए सदा कर चले
 
मियाँ खुश रहो हम दुआ कर चले
 
जो तुझ बिन न जीने को कहते थे हम
 
सो इस अहद को अब वफ़ा कर चले
 
कोई ना-उम्मीदाना करते निगाह
 
सो तुम हम से मुँह भी छिपा कर चले
 
बहोत आरजू थी गली की तेरी
 
सो याँ से लहू में नहा कर चले
 दिखाई दिए यूं यूँ कि बेखुबेखुद किया 
हमें आप से भी जुदा कर चले
 
जबीं सजदा करते ही करते गई
 
हक-ऐ-बंदगी हम अदा कर चले
 
परस्तिश की याँ तईं कि ऐ बुत तुझे
 
नज़र में सबों की ख़ुदा कर चले
 
गई उम्र दर बंद-ऐ-फ़िक्र-ऐ-ग़ज़ल
 
सो इस फ़न को ऐसा बड़ा कर चले
 
कहें क्या जो पूछे कोई हम से "मीर"
 
जहाँ में तुम आए थे, क्या कर चले
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