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मछरी / ब्रजभूषण मिश्र

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<poem>कतना आसान बा
केहू के हँसी आ मुसुकी के
नाप लिहल।
बाकिर गम के अथोर-अथाह
गहराई,
जवना के ओर-छोर
पता ना चले ;
के नाप सकेला, के नापे चाहेला ?
जीयला के चाहे
जतना खुशी मना लीं
कतना बेर मर चुकल बा मनई।
सभे आपन-आपन अलापत बा
एही से अइसन हालत बा।
लय-ताल मिलत नइखे,
प्राण रहलो पर आदमी
जीअत नइखे,
आदमी कुछुओ ना,
जीअत-तड़फड़ात मछरी बडुए ;
जे समय मछुआरा के
जाल में फँसल बडुए।

</poem>
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