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'<poem>गर्मी के दिन फिर से आये। सुबह सलोनी, दिन चढ़ते ही ...' के साथ नया पन्ना बनाया
<poem>गर्मी के दिन फिर से आये।
सुबह सलोनी, दिन चढ़ते ही
बन चंडी आंखें दिखलाती ,
पीपल की छाया भी सड़कों
पर अपनी रहमत जतलाती,
सन्नाटे की भाँग चढ़ा कर
पड़ी रही दोपहर नशे में,
पागल से रूखे पत्ते ज्यों
पागल गलियाँ चक्कर खाये ।
गर्मी के दिन फिर से आये।
नंगे बदन बर्फ़ के गोलों
में सनते बच्चे, कच्छे में,
कोने खड़ा खोमचे वाला
मटका लिपटाता गमछे में,
मल कर गर्मी सारे तन पर
लू को लिपटा कर अंगछे में
दो आने गिनता मिट्टी पर
फिर पड़ कर थोड़ा सुस्ताये।
गर्मी के दिन फिर से आये।
तेज़ हवा, रेतीली आँधी
साँय-साँय सा अंदर बाहर,
खड़े हुए हैं आँखें मूंदे
महल घरोंदे मुँह लटकाकर
और उधर लड़ घर वालों से
खेल रही जो डाल-डाल पर
खट्टे अंबुआ चख गलती से
पगली कूक-कूक चिल्लाये।
गर्मी के दिन फिर से आये ।
ठेठ दुपहरी में ज्यों काली
स्याही छितर गई ऊपर से,
श्वेत रूई के फ़ाहों जैसे
धब्बे बरस पड़े ओलों के
लगी बरसने खूब गरज कर
बड़ी-बड़ी बूंदे, सहसा ही
जलता दिन जलते अंगारे
उमड़-घुमड़ रोने लग जाये।
गर्मी के दिन फिर से आये।</poem>
सुबह सलोनी, दिन चढ़ते ही
बन चंडी आंखें दिखलाती ,
पीपल की छाया भी सड़कों
पर अपनी रहमत जतलाती,
सन्नाटे की भाँग चढ़ा कर
पड़ी रही दोपहर नशे में,
पागल से रूखे पत्ते ज्यों
पागल गलियाँ चक्कर खाये ।
गर्मी के दिन फिर से आये।
नंगे बदन बर्फ़ के गोलों
में सनते बच्चे, कच्छे में,
कोने खड़ा खोमचे वाला
मटका लिपटाता गमछे में,
मल कर गर्मी सारे तन पर
लू को लिपटा कर अंगछे में
दो आने गिनता मिट्टी पर
फिर पड़ कर थोड़ा सुस्ताये।
गर्मी के दिन फिर से आये।
तेज़ हवा, रेतीली आँधी
साँय-साँय सा अंदर बाहर,
खड़े हुए हैं आँखें मूंदे
महल घरोंदे मुँह लटकाकर
और उधर लड़ घर वालों से
खेल रही जो डाल-डाल पर
खट्टे अंबुआ चख गलती से
पगली कूक-कूक चिल्लाये।
गर्मी के दिन फिर से आये ।
ठेठ दुपहरी में ज्यों काली
स्याही छितर गई ऊपर से,
श्वेत रूई के फ़ाहों जैसे
धब्बे बरस पड़े ओलों के
लगी बरसने खूब गरज कर
बड़ी-बड़ी बूंदे, सहसा ही
जलता दिन जलते अंगारे
उमड़-घुमड़ रोने लग जाये।
गर्मी के दिन फिर से आये।</poem>