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|रचनाकार=हरकीरत हकीर
}}
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<poem>दर्द की महक
यूँ ही नहीं महसूस होती
ज़िन्दगी भर चलना पड़ता है
फासलों के साथ
दरारों को भरना पड़ता है
रिसते ज़ख्मों के लहू संग
जुबां पर लगाने पड़ते हैं टाँके
जब आँखों के आंसू दर्द देख
दहाड़ें नहीं मारते
तब उठती है
दर्द से महक ….
</poem>
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<poem>दर्द की महक
यूँ ही नहीं महसूस होती
ज़िन्दगी भर चलना पड़ता है
फासलों के साथ
दरारों को भरना पड़ता है
रिसते ज़ख्मों के लहू संग
जुबां पर लगाने पड़ते हैं टाँके
जब आँखों के आंसू दर्द देख
दहाड़ें नहीं मारते
तब उठती है
दर्द से महक ….
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