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मैं मिटटी का ठीकरा / हरकीरत हकीर

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<poem>अय माँ … !
मैं मिटटी का ठीकरा
किसी ने मारी ठोकर अय माँ
किसी के पैरों तले रुल गई
अधखिली सी धूप भी माँ
आ मेरे आँगन सूख गई
टंगा है मेहराबों पर
रेतीले सपनों का सेहरा
अय माँ ! मैं मिटटी का ….

अन्दर बाहर
कातिल आवाजें
जहरीले साँपों के दंश
सिरहाने कांपती हवाएं
अँधेरे कमरों के अंश
उम्र यह नागफनी सी
ज़ख्म पल - पल है गहरा
अय माँ ! मैं मिटटी का ….


ढोऊँ किस तरह
अँधेरी गलियों का सूनापन
किसी रेतीले से टीले का
ढहता वह दमघोटू क्षण
टूटती - जुड़ती
जुड़ती - टूटती
उलझी लकीरों का
है हाथों पर पहरा
अय माँ ! मैं मिटटी का ….
</poem>
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