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अधखिले फूल / हरकीरत हकीर

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<poem>आ आज की रात तुझे
आखिरी ख़त लिख दूँ
टूटी हुई सिसकती ज़िन्दगी में
कौन जाने फिर कोई रात आये या न आये

आ आज की रात को पिरो लें
यादों के सुनहरे पन्नों में
कौन जाने कल का सहर भी
देखना नसीब हो या न हो

दूर झरोखे से झांकता चाँद भी
आज कुछ अलसाया सा है
धुंधली सी है चांदनी
और रात भी कुछ उकताई सी है

घड़ी की सुइयों की टिक- टिक
प्रतिपल मेरे होने का एहसास
मुझे दिला देतीं
चारो ओर है मौत सा सन्नाटा
और बस तेरी याद का साया है …

लुट गए ज़िन्दगी के सुनहरे वरके
जब डाले थे प्यार के झूले साथिया
उड़े थे साथ - साथ दो पखेरू
एक उड़ गया दुसरा रह गया
बीच मझधार साथिया
काटे हैं बड़ी मुश्किल से
ज़िन्दगी के कुछ लम्हे
नहीं अब और जीने की आरजू साथिया
आ इस रात की संदिली बाहों में
छुपकर चलें कहीं दूर
जहां खिला सकें हम
अपने प्यार के
अधखिले फूल …. !!
</poem>
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