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मंहगाई / वंशीधर शुक्ल

18 bytes added, 04:15, 7 नवम्बर 2013
<poem>
हमका चूसि रही मंहगाई।
 
रुपया रोजु मजूरी पाई, प्रानी पाँच जियाई,
पाँच सेर का खरचु ठौर पर, सेर भरे माँ खाई।
छा दुपहरी खराबु करी तब कहूँ किलो भर पाई।
हमका चूसि रही मंहगाई।
 
जिनकी करी नउकरी उनते नाजउ मोल न पाई,
खीसइ बावति फिरी गाँव माँ हारि बजारइ जाई।
लरिका घूमइं बांधि लंगोटा जाडु रहा डिड़ियाई।
हमका चूसि रही मंहगाई।
 
खेती वाले गल्ला धरि धरि रहे मुनाफा खाई,
हमरे लरिका भूखे तरसइं उइ देखइं अठिलाई।
गन्ना गोहूँ बेंचि बेंचि के बैंकइ रहे भराई।
हमका चूसि रही मंहगाई।
 
सबते ज़्यादा अफसर डाहइं औ डाहइं लिडराई,
पार्टी बंदा अउरउ डाहइं जेलि देइं पहुंचाई।
बड़ी हउस ते ओटइ दइ दइ राजि पलटि मिलि जाई
अब खपड़ी पर बइठि कांग्रेस हड्डी रही चबाई।
हमका चूसि रही मंहगाई।
ओट देइ के समय पारटी लालच देंय बिछाई
बादि ओट के अइसा काटइं, जस लौकी चउराई।
हमइं कहूँ ते मिलइ न कर्जा हाय हाय हउहाई।
हमका चूसि रही मंहगाई।
 
बढ़िया भुईं माँ जंगल रोपइं ताल झील अपनाई
गाँव की परती दिहिसि हुकूमत दस फीसदी छोड़ाई।
ऊसर बंजर जोता चाही चट्ट लेइं छिनवाई।
हमका चूसि रही मंहगाई।
 
जो कछु हमरी सुनइ हुकूमत तौ हम बिनय सुनाई
सबकी खेती नीकि हमइं जंगलइ देत जुतवाई।
कइसे प्राण बचइं बिन खाए खाना कहाँ ते लाई।
हमका चूसि रही मंहगाई।
 
सुनित रहइ जिमिदार न रहिहइं तब जमीन मिलि जाई
अब उनके दादा बनि बइठे सभापती दुखदाई।
हम भुइंहीन सदा से, खेती हमइ न कोउ दइ पाई।
हमका चूसि रही मंहगाई।
 
हमते कहइं की की भुइं पर कब्जा लेहु जमाई
फिरी थोरे दिन माँ पटवारी अधिवासी लिखि जाई।
उनके लरिका हमका कोसिहइं हम बेइमान कहाई।
हमका चूसि रही मंहगाई।
 
हम होई बीमार डरन माँ अस्पताल ना जाई
हुंवउ लगि रही संतति निग्रह इंद्री लेइ कटाई।
हमरे तीनि जनेन का देखे उनकी फटइं बेवाई।
हमका चूसि रही मंहगाई।
 
नफाखोर मेढुका अस फूलइं हमरा सबु डकराई
थानेदार जवानी देखे पिस्टल देंइ धराई।
जो जेत्ता बेइमान वत्तिहे तोंदन पर चिकनाई।
हमका चूसि रही मंहगाई।
 
पार्टीबिंदी न्याय नीति अउ राजनीति ठगहाई
कोऊ नहीं सुनइ कोऊ की मउत रही डिड़ियाई।
हमका चूसि रही मंहगाई।
</poem>
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