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|रचनाकार=विमल राजस्थानी
|संग्रह=इन्द्रधनुष / विमल राजस्थानी
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<poem>
तुमने मिसाइलें तो गढ़ लीं,
लेकिन इंसान गढ़े न गये

यों साठ साल नाहक बीते
विष काल कूट पीते-पीते
जीता यह भ्रष्टाचार, बता-
दो तुम क्षण भर भी कब जीते

जो प्राणों पर थे खेल गये
स्वाधीन देश को करने में
समझा-त्योहार मनाते हैं-
गोली-फाँसी से मरने में

उनको जब-जब श्रद्धांजलि दे-
‘मीडिया’ मध्या छा जाते हो
फिर चढ़ा टाँग पर टाँग मगन-
मन तुम मुरलि का बजाते हो

है चारो ओ कहर बरपा-
करती हैवानों की टोली
नाचती चतुर्तिक फिरकी-सी-
ऐ. के. सैंतालिस की गोली

तुम संविधान मे काट-छाँट-
कर मतलब भर पढ़ लेते हो
जन-जन की फूटी तकदीरों-
के आखर कभी पढ़े न गये
तुमने मिसाइलें तो गढ़ ली-
लेकिन इंसान गढ़े न गये
</poem>
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