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12:03, 16 दिसम्बर 2013
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मैं अपने मन की सुनता तो तुम्हें अब तक चूम चुका होतापटरियों पर जिस बेहरमी से गुजरती है रेलयानी किन्हीं पके हुए शब्दों में बता सकता कितुम खारी हो या मीठी होसन्नाटे को जिस क्रूरता से तोड़ता है सायरनऔर यह तुमने भी कितुम्हारी देह में जो खिलते हैं, उन फूलों तो धरती कोदिये हैं दृश्य कुछ ऐसे हीकिन पहाड़ों से रंगत हासिल हैबतौर उपहार
मैं अपने मन बढ़ाया है कब्रस्तानों की सुनता तो अपने समस्त खालीपन सरहदों कोतुम्हारे हर खालीपन में उड़ेलकर भर चुका होतायानी हमारा खालीपन मिलकर भरे होने का भ्रम देताऔर तुम्हारी इन हुनरमंद आँखों में, जो तिलिस्म रचती हैंतेल की तरह तैर रहा होता ऊपर-ऊपरउनकी तादात को भी
मैं अपने मन की सुनता तो तुम नींद से बाहर भीक्या एक जूता नाकाफी नहीं होता इसके लिएरच रही होती मेरे होने, न होने भले ही वह आत्मा कोयानी नींद में मुझे अपना बिस्तर नहीं काटताऔर जो कभी कँपकँपाती ठंड से मेरी हथेलीकिसी अलाव की तरह मौजूद होती तुमउधेड़ जाए
लेकिन मैं अपने मन की उम्मीदों पर खरा हम समझते हैंतुम्हारी महानताबोध के रहस्यऔर यह भी समझते हैं किहमें समझना नहीं उतरताचाहिएयानी वह मुझसे थोड़ा साहस माँगता और यह भी समझते हैं किहमें समझने की आवश्यकता नहीं हैऔर मेरे पास बहाने इतने यह भी समझते हैं,किजितना दुनिया में कचराहम समझकर आखिर कर भी लेंगे क्या ? मगर यह तो हमारी समझ हैतुम इसे अपनी समझ क्यों समझते हो ? (महानताबोध के भ्रांतिपूर्ण विश्वास की स्थिति)
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