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Kavita Kosh से
दरवाजे पर सर्वस्व खो सकूं
नींद न आये जनम-जनम तक,
इतनी सुध-बुध हरो कि
मुरझा न पाये फसल न कोई
किसी न घर दीपक बुझ पाये
भूखी सोये रात न कोई
प्यासी जागे सुबह न कोई,
स्वर बरसे सावन आ जाये
रक्त गिरे, गेहूं उग गेहूँउग आये!
ऐसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दिया बन जाये!!
बहे पसीना जहांजहाँ, वहां वहाँ
हरयाने लगे नई हरियाली,
गीत जहां जहाँ गा आय, वहां वहाँ
छा जाय सूरज की उजियाली
मुसका दे मेरी मानव-ममता
चन्दन हर मिट्टी हो जाय
मुझे श्राप लग जाये, न दौङूं
जो असहाय पुकारों पर मैं,
टूटे मेरे हांथ हाथ न यदि यह
उठा सकें गिरने वालों को
मेरा गाना पाप अगर