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क़तर दिया / जेन्नी शबनम

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<poem>क्या-क्या न क़तर दिया
कभी सपने
कभी आवाज़
कभी ज़िंदगी
और तुम हो कि
किसी बात की क़द्र ही नहीं करते
हर दिन एक नए कलेवर के साथ
एक नई शिकायत
कभी मेरे चुप होने पर
कभी चुप न होने पर
कभी सपने देखने पर
कभी सपने न देखने पर
कभी तहजीब से ज़िंदगी जीने पर
कभी बेतरतीब ज़िंदगी जीने पर
हाँ, मालूम है
सब कुछ क़तर दिया
पर तुम-सी बन न पाई
तुम्हारी रंजिश बस यही है !

(मार्च 1, 2013)</poem>
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