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<poem>आँधि‍याँ ठि‍ठुरती हुई
काँपती हुई
थ र थ रा ती हुई


एक बुज़ुर्ग आवाज़ की कडक


महँदी आसमानों में रची
बादलों में काजल लगा
चाँद माथे पर सजा, पूरा का पूरा
गोल
पीला - पीला चौदहवीं का


नफ़रत के परदे में
चली तलवारें
चमक - चमक उट्ठा
सफ्फ़ाक !
प्रेम...


पुनवा फागुनी
ख़ूब रँगी और ख़ूब रँगी
एक लहूलुहान रात

- 1999 ई0 </poem>