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दर्द की रात ढल चली हैधार</div>
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रचनाकार: [[फ़ैज़ अहमद फ़ैज़अरुण कमल]]
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बात बस से निकल चली कौन बचा हैजिसके आगेदिल की हालत सँभल चली हैइन हाथों को नहीं पसारा
अब जुनूँ हद से बढ़ चला यह अनाज जो बदल रक्त मेंटहल रहा हैतन के कोने-कोनेअब तबीअत बहल चली यह कमीज़ जो ढाल बनी हैबारिश सरदी लू मेंसब उधार का, माँगा चाहानमक-तेल, हींग-हल्दी तकसब कर्जे कायह शरीर भी उनका बंधक
अश्क ख़ूँनाब हो चले हैंग़म की रंगत बदल चली अपना क्या हैइस जीवन मेंसब तो लिया उधारलाख पैग़ाम हो गये हैंजब सबा इक पल चली है जाओ, अब सो रहो सितारोदर्द की रात ढल चली है जुनूँ=दीवानगी; अश्क=आँसू; सारा लोहा उन लोगों काख़ूँनाब=लहू के रंग अपनी केवल धार ।
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