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<poem>जिन्दगी धुएँ की मानिंद उड़ती रही ,
कभी खुद पे, कभी मुझ पे हँसती रही;

अरमानों के धागों से बुनी हुई चादर ,
वख्त की करवटों में तार-तार उधडती रही !

सुलझाने लगा जिन्दगी जब हालातों में,
इस हुनर से रिश्तों में दरारें पडती रही !

लहू के अश्कों से भरता रहा जख्मों को ,
वख्त कुरेदता रहा ,और दर्द बढती रही !

मिलना -बिछड़ना तो जहाँ के लफ्ज़ भर हैं ,
यहाँ किश्मत खुद की लकीरें पढ़ती रही!

मंदिर में खुदा मिला न मस्जिद में भगवान,
जिन्दगी जहाँ में खुद की तश्वीर ढूढती रही!
</poem>
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