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प्यास / धीरेन्द्र अस्थाना

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<poem>बूँद कतरा-कतरा तरसती रही प्यास को,
साकी रिंद को यूँ ही तसल्ली देता रहा !

कभी प्यास तो कभी रिंद की खुद्दारी थी
दुश्मनी का ये सिलसिला ता-उम्र चलता रहा !

एक दूजे को मिटाने की हसरत का ख़्वाब,
नाहक ही दोनों के अरमानों में पलता रहा !

साकी भी था, महफ़िल भी और रिंद भी,
फिर भी पैमाना लबों के लिए मचलता रहा !

बूँद कतरा-कतरा तरसती रही प्यास को,
साकी रिंद को यूँ ही तसल्ली देता रहा !
</poem>
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