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<poem>अपनी ही लाश पे रोने को बैठा हूँ;
पाया भी नहीं और खोने को बैठा हूँ।

दस्तूर कुछ ऐसा हुआ है चलन का,
खुद का ही जनाज़ा ढोने को बैठा हूँ।

धडकनों की कब्र में सांसों का कफन लिए,
ता उम्र को यारों अब सोने को बैठा हूँ।

इल्जाम कोई तेरे सर न आये,
खुद ही दाग-ए-कत्ल धोने को बैठा हूँ।

फिर भी ये जुर्रत या हिम्मत कहिये,
कुछ भी न होकर सब कुछ होने को बैठा हूँ।

अपनी ही लाश पे रोने को बैठा हूँ;
पाया भी नहीं और खोने को बैठा हूँ।
</poem>
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